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________________ १८ : जैन योग के सात ग्रंथ ६७. पायसमा ऊसासा कालपमाणेणं हंति नायव्वा। एवं कालपमाणं उस्सग्गेणं तु नायव्वं ।। एक उच्छ्वास का कालमान है एक चरण का स्मरण। इस प्रकार कायोत्सर्ग से काल-प्रमाण ज्ञातव्य है। ६८. मायाए उससग्गं सेसं च तवं अकुव्वओ सहुणो। को अन्नो अणुहविही सकम्मसेसं अणिज्जरियं॥ जो मुनि समर्थ है, किन्तु माया के वशीभूत होकर कायोत्सर्ग आदि तप नहीं करता तो उसके अनिर्जरित शेष कर्मों का दूसरा कौन अनुभव करेगा? उसे ही उनका फल प्राप्त होगा। निक्कूडं सविसेसं वयाणुरूवं बलाणुरूवं च। खाणुव्व उद्धदेहो काउस्सगं तु ठाइज्जा॥ १. (क) आवश्यक भाष्यगाथा २३५ : जो खलु तीसइवरिसो सत्तरिवरिसेण पारणाइसमो। विसमे व कूडवाही निम्विन्नाणे हु से जड्डे॥ -दो मुनि कायोत्सर्ग करते हैं। एक तीस वर्ष का युवा है और दूसरा सत्तर वर्ष का वृद्ध। दोनों एक साथ कायोत्सर्ग प्रारंभ करते हैं, किन्तु यदि युवा मुनि वृद्ध मुनि के साथ-साथ कायोत्सर्ग को सम्पन्न करता है तो वह विषम मार्ग में चलने वाले विषमवाही बैल की भांति अज्ञानी और जड़ है। (ख) आवश्यक भाष्यगाथा २३६ : समभूमेवि अइभरो उज्जाणे किमुअ कूडवाहिस्स? अइभारेण भज्जइ तुत्तयघाएहि अ मरालो। -जो बैल विषमवाही होता है उसे समतल भूमि में भी अतिभार लगता है तो चढ़ाई में अतिभार लगे इसमें आश्चर्य ही क्या ? वह दुष्ट बैल भार की अधिकता तथा कोड़े की मार से पीड़ित होता है। (ग) एमेव बलसमग्गो न कुणइ मायाइ सम्ममुस्सग्गं। मायावडिअ कम्मं पावइ उस्सग्गकेस च॥ (प्रक्षिप्त गाथा) -इसी प्रकार जो मुनि बलवान् होते हुए भी माया के वशीभूत होकर सम्यक् प्रकार से कायोत्सर्ग नहीं करता उसके माया-प्रत्ययिक कर्म का बन्ध होता है तथा वह कायोत्सर्ग के क्लेश को प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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