SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० : जैन योग के सात ग्रंथ ८९. ९०. ९१. जितेन्द्रियस्य धीरस्य, प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः । सुखासनस्थस्य नासाग्रन्यस्तनेत्रस्य योगिनः ॥ रुद्धबाह्यमनोवृत्तेर्धारणाधारया प्रसन्नस्याऽप्रमत्तस्य, साम्राज्यमप्रतिद्वन्द्वमन्तरेव ध्यानिनो नोपमा लोके वितन्वतः । सदेवमनुजेऽपि हि ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) जो जितेन्द्रिय, धीर, प्रशान्त और स्थिरात्मा है, जो सुखासन में स्थित है, जिसकी दृष्टि नासाग्र पर स्थित है, जो योगी है, जिसने धारणा की धार से बाह्य मनोवृत्ति को शीघ्र ही रोक लिया है, जो प्रसन्नचित्त है, जो अप्रमत्त है, जो चिदानन्द के अमृत का आस्वाद लेता है, जो अन्तर में प्रतिद्वन्द्वरहित चक्रवर्तित्व का विस्तार करता है, ऐसे ध्यानी को उपमित करने के लिए देवलोक सहित मनुष्यलोक में भी कोई उपमा नहीं है। ९२. ९४. रयात् । चिदानन्दसुधालिहः ॥ ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां तापनात् तपः । तदाभ्यन्तरमेवेष्टं, बाह्यं तदुपबृंहकम् ॥ पंडितों का कहना है कि कर्मों को तपाने के कारण तप ज्ञान ही है। तप के दो भेद हैं- बाह्य और आभ्यन्तर । आभ्यन्तर तप ही इष्ट है। बाह्य तप उसका उपबृंहण करनेवाला है। ९३. सुखशीलता । परमं तपः॥ अज्ञानी की अनुस्रोत में बहने की वृत्ति सुखशीलता है तथा ज्ञानी की प्रतिस्रोत में बहने की वृत्ति परम तप है। सदुपायप्रवृत्तानामुपेयमधुरत्वतः नित्यमानन्दवृद्धिरेव ज्ञानिनां तपस्विनाम्॥ सद् उपाय में प्रवृत्त ज्ञानी और तपस्वियों के उपेय- मोक्षरूप साध्य की मिठास से नित्य आनंद की वृद्धि ही होती रहती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org वृत्तिर्बालानां आनुस्रोतसिकी प्रातिस्रोतसिकी वृत्तिर्ज्ञानिनां Jain Education International
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy