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________________ १३४ : जैन योग के सात ग्रंथ ५७. ग्रामारामादि मोहाय, यद् दृष्टं बाह्यया दृशा। तत्त्वदृष्ट्या तदेवान्तर्-नीतं वैराग्यसंपदे॥ बाह्यदृष्टि से देखे गए गांव, बगीचे आदि मोह के कारण बनते हैं। तत्त्वदृष्टि से उनकी आंतरिक मीमांसा कर उनको आत्मा में उतारते हैं तब वे वैराग्य की संपदा के लिए होते हैं। ५८. भस्मना केशलोचेन, वपु¥तमलेन वा। महान्तं बाह्यदृग् वेत्ति, चित्साम्राज्येन तत्त्ववित्॥ बाह्यदृष्टि मनुष्य शरीर पर राख लगाने वाले, केशलोच करने वाले अथवा शरीर पर मैल धारण करनेवाले को महान् समझता है, किन्तु तत्त्व-दृष्टि मनुष्य ज्ञानगरिमा से संपन्न व्यक्ति को महान् मानता है। ५९. बाह्यदृष्टिप्रचारेषु, मुद्रितेषु महात्मनः। अन्तरेवावभासन्ते, स्फुटाः सर्वाः समृद्धयः॥ जब बाह्य दृष्टि की प्रवृत्तियां बंद हो जाती हैं तब महात्माओं को भीतर में ही सारी संपदाओं का स्फुट दर्शन हो जाता है। ६०. या सृष्टिब्रह्मणो बाह्या, बाह्यापेक्षावलम्बिनी। मुनेः परानपेक्षाऽन्तर्गुणसृष्टिः ततोऽधिका॥ __ब्रह्म की सृष्टि बाह्य है और बाह्य कारणों की अपेक्षा रखने वाली है। मुनि की आंतरिक गुण-सृष्टि परापेक्ष नहीं है तथा उस (बाह्यसृष्टि) से अधिक श्रेष्ठ है। ६१. दुःखं प्राप्य न दीनं स्यात्, सुखं प्राप्य च विस्मितः। मुनिः कर्मविपाकस्य, जानन् परवशं जगत्॥ मुनि जानता है कि सारा जगत् कर्म-विपाक के अधीन है। इसलिए वह दुःख पाकर दीन नहीं होता और सुख पाकर विस्मितप्रसन्न नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003079
Book TitleJain Yoga ke Sat Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size5 MB
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