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________________ जीवन की पोथी रहो, यह पहली शर्त है । दूसरी शर्त है कि तुम निरन्तर मेरे साथ रहो, कहीं छोड़कर न जाओ । राजा बोला-'यह तो मेरे लिए संभव नहीं।' बालक बोला--तो मेरा भी तुम्हारे साथ रहना संभव नहीं। जब मैं सोता हूं तो मेरा प्रभु निरन्तर जागता है। वह निरन्तर मेरे साथ रहता है । उसको छोड़कर मैं तुम्हारे साथ रहूं, यह कभी संभव नहीं। जो निरन्तर साथ नहीं देता, वह कभी काम का नहीं होता। मैत्री का सुख चौबीस घंटा साथ रहता है। सोता है तब भी वह जागता रहता है । वह निरंतर साथ ही रहता है, कभी भी साथ नहीं छोड़ता। कौन प्रभु है, मैं नहीं जानता, किन्तु मैत्री का प्रभु तो ऐसा है कि जो निरंतर साथ ही रहता है । कभी भी साथ नहीं छोड़ता, सदा जागता रहता है। मैत्री की दूसरी निष्पत्ति है शाश्वत सुख, स्थायी सुख । मैत्री की तीसरी निष्पत्ति है प्रसन्नता। जिसके मन में मैत्री का विकास हुआ है वह कभी विषण्ण नहीं होता, दुःखी नहीं होता, निरंतर प्रसन्न रहता है । मंत्री नहीं है तो कोई आदमी गलत काम कर रहा है, तत्काल मन में घृणा आ जाएगी। जिसके मन में मैत्री का विकास है तो कितना ही बुरा है तो उसके मन में घणा नहीं जागेगी। ईसा वेश्याओं के घर जाने लगे। भक्तों ने कहा, अरे महाप्रभु ईसा वहां जा रहे हैं। वे दौड़े दौड़े आए और बोले-प्रभो! आप कहां जा रहे हैं ? ईसा बोले-'मुझे जहां जाना है वहीं जा रहा हूं।' भक्त बोले-'प्रभो! वह तो पतिता है, अधर्मा है । वहां आप क्यों?' ईसा ने कहा- 'मुझे तो वहीं रहना चाहिए।' ईसा वेश्या के घर गए। लोगों के मन में घृणा का भाव आया, पर उनके मन में घृणा नहीं थी। प्रसन्नता रहती है तो घृणा का भाव नहीं जागता। जिनके मन में मैत्री का विकास नहीं है, उनमें तत्काल घणा का भाव आ जाता है। जिनके मन में मैत्री का विकास है उनमें कभी घणा नहीं जागती। बुराई से घृणा हो सकती है किन्तु आदमी से घृणा नहीं हो सकती। अच्छे आदमी से भी घणा नहीं होती और बुरे आदमी से भी घृणा नहीं होती। आर्द्रकुमार ने एक बहुत महत्त्व की बात कही। जब आजीविक आचार्य ने कहा कि तुम तो सबकी निंदा कर रहे हो, घृणा कर रहे हो, तब आर्द्रकुमार बोले-निन्दा बिलकुल नहीं कर रहा हूं। मैं मिथ्यादृष्टि की गहीं कर रहा हूं, निंदा कर रहा हूं। किसी व्यक्ति विशेष से घृणा नहीं कर रहा हूँ। जिसके मन में मंत्री उदित हो जाएगी, तब फिर चाहे दूसरा आदमी कितना ही बुरा है, बुराई कर रहा है, झूठ बोल रहा है, अब्रह्मचर्य का सेवन कर रहा है, लोभी है, सब कुछ कर रहा है, उस व्यक्ति के प्रति भी मन में मैत्री का भाव बना रहेगा। उसके मन में इतनी करुणा जागेगी कि वह सोचेगा कैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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