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________________ जीवन की पोथी नहीं होगा ? क्या हमारे शरीर में कीटाणु और विषाणु नहीं हैं ? ये जीवाणु नहीं हैं ? ऐसा कौन-सा शरीर है जिसमें ये नहीं हैं ? जिस व्यक्ति की रोगप्रतिरोधात्मक शक्ति प्रबल होती है उसके लिए कीटाणु और विषाणु कभी रोग पैदा नहीं करते। वह सदा स्वस्थ रहता है। उन कीटाणुओं और विषाणुओं के साथ लड़ने की शक्ति उस व्यक्ति में होती है जिसमें मैत्री का भाव प्रबल होता है। जिसमें शत्रुता का भाव आया, उसका मनोबल कमजोर हो जाएगा । रोग-प्रतिरोधात्मक शक्ति उसकी कमजोर पड़ जाएगी। वह व्यक्ति ज्यादा बीमार पड़ता है जिसमें शत्रुता का भाव ज्यादा होता है। विज्ञान की दो शाखाएं हैं -एक मेडीकल साइंस और दूसरी साईकोलोजी । मेडिकल साइंस के लोगों ने तो सारी बीमारियों का आधार कीटाणु और विषाणु बतला दिया। किन्तु साईकोलोजिस्ट ने बतलाया कि यह गलत बात है । ये कीटाणु और विषाणु ही बीमारी के कारण नहीं हैं। उनमें से भी बड़ा कारण है मानसिक विकृतियां, मनोबल को कमी। जिसका मनोबल कमजोर होता है, वह व्यक्ति रोग से आक्रान्त होता है। जिसका मनोबल मजबूत होता है उसमें लड़ने की क्षमता होती है। यह चारों ओर से, वातावरण से और अपने शरीर से घिरा होने पर भी बीमारी से आक्रान्त नहीं होता। जिस व्यक्ति में मैत्री का विकास नहीं होता, उस व्यक्ति का मनोबल विकसित नहीं होता । शत्रुता एक जहरीला कीड़ा है, जिसके पीछे लगा, उसे निरन्तर सताता रहता है। और तब मन ही मन मनोबल दबता चला जाता है । यह कुंठा पैदा करता है, अवसाद पैदा करता है और घणा पैदा करता है । कुंठा, घृणा, अवसाद और विषण्णता-ये ऐसे भयंकर कीटाण हैं कि जो स्वास्थ्य को लीलते रहते हैं। आदमी बीमार पड़ता है। मैत्री की सबसे बड़ी और सबसे पहली निष्पत्ति है स्वास्थ्य । आदमी स्वस्थ रहना चाहता है, बीमार होना नहीं चाहता। चिकित्सा की दृष्टि में बीमार होने पर दवा की शरण लेना जरूरी है। किन्तु अध्यात्म की दृष्टि में बीमारी के आने पर सबसे पहले अरहंते सरणं पवज्जामि । सिद्धे सरणं पवज्जामि । साहू सरणं पवज्जामि । केवली पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि - यह शरण ली जाती है। पहली शरण तो यह होगी। अब कोई बची-खुची कोई बात शेष रह जाएगी तो दवा की यत्किचित् सहायता ली जा सकती है, न कि शरण । शरण में जाना एक बात है और सहायता लेना बिलकुल दूसरी बात है। सहायता की तो जरूरत हो सकती है किन्तु शरण किसकी होनी चाहिए, इसका विवेक अपेक्षित है। जिस व्यक्ति ने डाक्टर की और दवा की शरण ले ली, जो शरणागति बन गया, उसने अपने जीवन को भी खो दिया और अपने स्वास्थ्य को भी खो दिया। जिसने अपनी अन्तरात्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ww
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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