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________________ क्या मैं ईश्वर हूं ? प्रेक्षाध्यान का अर्थ है -- केवल ज्ञान और केवल ज्ञान का अर्थ है अपना ज्ञान, अपने आपको जानना, आत्म-ज्ञान । कुछ लोग पदार्थ का ज्ञान करते हैं, अपने आपको नहीं जानते। जिसने अपने आपको नहीं जाना, वह दूसरे को ठीक ढंग से नहीं जान सकता । हमारे ज्ञान का मूल केन्द्र है आत्मज्ञान । जो अपने आपको जानता है वह दूसरों को यथार्थ में जान लेता है । जो अपने आपको नहीं जानता, वह दूसरों को जानने का प्रयत्न करता हैं, पर सही अर्थ में जान नहीं पाता । आत्मज्ञानी और ईश्वर ये दो बातें नहीं हैं । जो ईश्वर है वह आत्मज्ञानी है और जो आत्मज्ञानी है वह ईश्वर है । आजकल एक भ्रांति है मनोविज्ञान के क्षेत्र में । मनोवैज्ञानिकों ने कहा जो अपने आप में केन्द्रित रहता है वह आत्मरती बन जाता है, आत्मकेन्द्रित हो जाता है, फिर वह दूसरों की चिता नहीं करता । अध्यात्म का या आत्मज्ञान का एक दोष बतलाया जाता है आत्मरती होना, अपने आपमें केन्द्रित हो जाना । फिर वह आसपास की चिता नहीं करता। इस प्रकार समाज की व्यवस्था में एक त्रुटि आती है । आज इस बात को ठीक समझा नहीं गया । आत्मज्ञान का अर्थ आत्मरती हो सकता है किन्तु आत्मरती स्वार्थी नहीं हो सकता । स्वार्थी अलग होता है और आत्मकेन्द्रित अलग होता है । स्वार्थी वह होता है जो अपने आपको नहीं जानता । आज की समस्या स्वार्थ की समस्या है। जितनी समस्याए. जितनी बुराइयां हैं वे सब स्वार्थ के कारण हो रही हैं । आदमी अपने आपको अपने घर को और अपने परिवार को भरना चाहता है । आत्मज्ञान और स्वार्थ में कोई रिश्ता नहीं है । जो जितना आत्मज्ञानी होगा, उतना ही स्वार्थमुक्त होगा । कोई स्वार्थ उसमें नहीं हो सकता । स्वार्थी वह होता है जो अपने आपसे दूर रहता है । स्वार्थी हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, संग्रह करता है, हत्या करता है, दूसरों को सताता है, सब कुछ करता है । क्यों करता है ? क्योंकि वह भीड़ में जीना चाहता है । आत्मज्ञानी अकेले में जीना जानता है । दो प्रकार के लोग होते हैं- एक वे जो अकेले में जीना जानते हैं, दूसरे वे जो भीड़ में जीना जानते हैं। जिसने अपने आपको जानने का प्रयत्न नहीं किया वह अकेला जीना नहीं जानता, अकेलेपन के जानता । जो अपने आपसे दूर है वह भीड़ में जीता है। रहस्य को नहीं एक अकेले का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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