SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन की पोथी स्वयं आलोचना करता है, विश्लेषण करता है तब समझता है कि यह आदत अच्छी नहीं है, इसे बदलना चाहिए। आलोचना के द्वारा यह दृष्टिकोण निर्मित होता है । पहली बात है आलोचना, अपनी वृत्तियों का साक्षात्कार करना, अपने आपको देखना और समझना। दूसरी बात है उस आदत को बदलना । जब व्यक्ति अपनी आदतों को देखता है, उनके परिणामों को देखता है, और उनका विश्लेषण करता है तो अनुभव करता है कि वास्तव में बुरी आदत है और उसका परिणाम भावी पीढ़ी पर पड़ेगा, बच्चे सीखेंगे, मुझे इसे बदल देना चाहिये। तो उपदेश की अपेक्षा आलोचना बहुत महत्त्वपूर्ण है। उपदेश और शिक्षा के द्वारा एक छोटे बच्चे में भी तनाव आ जाता है । किन्तु जब स्वयं निरीक्षण की वृत्ति जाग जाए, चेतना जाग जाए तो शायद परिवर्तन की बहुत संभावना होती है। आलोचना के द्वारा निन्दा का भाव पैदा होता है। चौंकिए मत, आलोचना का अर्थ भी बदल गया, निन्दा का अर्थ भी बदल गया है। दूसरे की आलोचना करना और दूसरे की निंदा करना---यह अर्थ यहां प्रासंगिक नहीं है । अध्यात्म में दूसरा कोई है ही नहीं। अध्यात्म में व्यक्ति अकेला होता है। दूसरा हुआ, वहां अध्यात्म समाप्त हो जाता है। अकेलेपन के अनुभव का नाम है अध्यात्म । जहां दूसरा जुड़ता है वहां अध्यात्म नहीं रहता, वहां आ जाता है व्यवहार । एक के अतिरिक्त है क्या ? अद्वैत की भाषा में कहें तो आत्मा एक है । दूसरा है ही नहीं। मात्र मिथ्या मायावाद है । एक से हटकर कोई सत्य नहीं है। जैन दर्शन की भाषा में कहूं तो आत्मा अकेला है। सचाई है कि आत्मा अकेला है । दूसरा है हमारा व्यवहार । पूरा सत्य नहीं है। सत्य है अकेला, अकेलेपन का अनुभव । यहां दूसरे जैसा कोई शब्द नहीं है। न दूसरे की कोई आलोचना होती है और न दूसरे की कोई निन्दा होती है। आलोचना होगी तो अपनी होगी और निन्दा होगी तो अपनी होगी। निन्दा का अर्थ भी रूढ़ बन गया। निन्दा को बहुत खराब समझा जाता है। कोई कह दे कि अमुक तुम्हारी निन्दा कर रहा है तो सिर गरमा जाता है । निन्दा का नाम किसी को अच्छा नहीं लगता । किन्तु अध्यात्म के क्षेत्र में आलोचना और निन्दा बड़े मूल्यवान शब्द हैं। आदत को बदलने का दूसरा सूत्र है-निन्दा। बात अटपटी लगती होगी कि आदत को बदलने का साधन भी निन्दा कैसे हो सकती है ? दुश्मन बनाने का साधन और स्नेह बिगड़ने का साधन तो हो सकती है, पर आदत को बदलने का यह साधन कैसे हो सकती है। अध्यात्म तो उल्ला मार्ग दिखाती है। इस दुनिया में जीने वाले आदमी को वह उल्टा मार्ग ही लगता है । निंदा का हृदय है अपने आचरणों की मीमांसा करना और उस मीमांसा में जो अकरणीय कार्य आ गया उसका अनुपात करना, उसका अनुभव करना, इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy