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________________ जीवन की पोथी जाता है, कर्त्तव्य को समझ नहीं पाता। मकड़ी अपने जाल में उलझती है, उसी प्रकार अज्ञानी उलझ जाता है । इन्सपेक्टर ने सिपाही से कहा कि तुमने चोर को पकड़ा क्यों नहीं ? सिपाही बोला..... "हुजूर ! मैं क्या करूं, वह एक ऐसे घर में घुसा जिसके बाहर लिखा था कि अन्दर आना मना है । मैं भीतर कैसे जाता चोर को पकड़ने के लिए ?" अज्ञानी आदमी उलझ जाता है । वह सही निर्णय नहीं कर पाता और सही स्थिति को जान नहीं पाता । ज्ञान बहुत आवश्यक है। ___ कोरे ज्ञान से काम चल नहीं सकता । ज्ञान के बाद दृष्टिकोण का निर्माण भी जरूरी होता है। पहले ज्ञान होता है, फिर दृष्टिकोण बनता है। दृष्टिकोण और आस्था का निर्माण हुए बिना ज्ञान भी हमारा साथ नहीं देता। आस्था का निर्माण करना होता है। जब ज्ञान, दृष्टिकोण या आस्था का निर्माण हो जाता है, फिर चारित्र --आचरण का निर्माण होता है। केवल ज्ञान या आस्था पार नहीं पहुंचा पाती, अभ्यास आवश्यक होता है। चारित्र अपेक्षित होता है । नौका है, डांड है, नाविक है । जब तक नौका को खेया नहीं जाता, तब तक नदी को पार नहीं किया जा सकता । एक तट से दूसरे तट तक नहीं पहुंचा जा सकता । खेना आवश्यक है, अभ्यास अत्यन्त आवश्यक है । अभ्यास तीसरा आचार है। चौथा आचार है-तप । प्रत्येक व्यक्ति जो प्रगति के पथ पर गतिशील है, उसके सामने कठिनाइयां आती हैं, समस्याएं आती हैं। जब तक उन कठिनाइयों से जूझने की क्षमता नहीं होती, तब तक जहां पहुंचना है वहां नहीं पहुंचा जा सकता। इसके लिए तपस्या आवश्यक है। तपस्या का अर्थ केवल उपवास करना मात्र नहीं है । तपस्या का अर्थ है-आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों को झेलना, उनसे जूझना । पांचवां आचार है ... वीर्य, पराक्रम । पराक्रम के बिना न तपस्या हो सकती है, न आचरण हो सकता है, न आस्था का निर्माण हो सकता है, न ज्ञान हो सकता है। उसके मूल में है पराक्रम, प्रयत्न । ध्यान का अभ्यास करने वाले अपने आदर्श की दिशा में प्रस्थान करते हैं, ईश्वर की सन्निधि में जाने या स्वयं ईश्वर बनने का प्रयत्न करते हैं। उन्हें इस पंच-आचारात्मक प्रयोग पर ध्यान देना होगा । प्रेक्षाध्यान के प्रयोग में इसका विकास सन्निहित है। प्रश्न होता है कि क्या श्वास को देखने से निर्जरा होगी ? कैसे होगी ? न हम स्वाध्याय करते हैं, न जप करते हैं, न उपवास करते हैं । केवल आते-जाते श्वास को देख रहे हैं । देखने मात्र से निर्जरा कैसे होगी? साधु-संन्यासी और तपस्वी के दर्शन करने से निर्जरा होती है, कर्म-निर्जरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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