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________________ योग योग शब्द युज् घातु से बनता है । उसके दो अर्थ हैं— जोड़ना और समाधि | साधना काल में मन आत्मा से जुड़ता है, इसलिए आत्मा और मन के सम्बन्ध को योग कहा जाता है । साधना काल में मन की समाधिहो जाती है, अतः उस समाधि दशा को योग कहा जाता है । जैन - साहित्य में योग के अर्थ में समाधि का प्रयोग अधिक होता है । महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा जाता है | आचार्य हरिभद्र के अनुसार मोक्ष से सम्बन्ध कराने वाला समूचा धर्मव्यापार योग है । 'मनोनुशासनम्' में योग की परिभाषा इन दोनों से भिन्न है । समाधि का अर्थ है, आत्मा की सहज अवस्था । वह आहार, श्वासउच्छ्वास, शरीर, इन्द्रिय, वाणी और मन के शोधन तथा निरोध से प्राप्त होती है । इसलिए उन्हीं के शोधन तथा निरोध को योग कहा गया है । आहार-शुद्धि के बिना समाधि-दशा प्राप्त नहीं हो सकती, इसलिए आहार की शुद्धि करो और पूर्ण समाधि के लिए आहार का निरोध करो । इसी प्रकार श्वास- उच्छ्वास, इन्द्रिय, वाणी और मन की शुद्धि के बिना समाधि-दशा प्राप्त नहीं हो सकती । इसलिए इनकी शुद्धि करो और पूर्ण समाधि के लिए इनका निरोध करो । योग के चार प्रकार योग के आचार्यों ने योग के चार प्रकार बतलाए हैं (१) हठयोग ( २ ) लययोग (३) मंत्रयोग (४) राजयोग हठयोग : हठयोग का सांकेतिक अर्थ है सूर्य और चन्द्र को एकत्र करने कला । हठयोगी 'हकार' का अर्थ सूर्य और 'ठकार' का अर्थ चन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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