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________________ ब्रह्मचर्य जब हम दीक्षित हुए थे उस समय हमने पाँच महाव्रत स्वीकार किए थे। वह स्वीकार संकल्पज स्वीकार था। संकल्पज स्वीकार से साधना का प्रवेशद्वार खुलता है, किन्तु सिद्धि नहीं मिलती। उसके लिए अधिक साधना अपेक्षित है। वह अनेक उतारचढ़ावों के बाद प्राप्त होती है। ___ब्रह्मचर्य दो भागों में विभक्त है--संकल्प सिद्ध-ब्रह्मचर्य और सिद्धब्रह्मचर्य । सिद्ध-ब्रह्मचर्य की भूमिका तक पहुंचना हमारा लक्ष्य है । शास्त्रों में 'घोर बंभयारी' शब्द आता है। वह एक विशेष प्रकार की लब्धि (योगजशक्ति) है । वह दीर्घकालीन साधना से उपलब्ध होती है। राजवातिक के अनुसार जिसका वीर्य स्वप्न में भी स्खलित न हो, वह घोर ब्रह्मचारी होता है। जिसका मन स्वप्न में भी अणु-मात्र विचलित नहीं होता उसे घोर-ब्रह्मचर्य की लब्धि प्राप्त होती है। शुभ संकल्पों और साधना के द्वारा इस भूमिका तक पहुंचा जा सकता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है---मैथुन विरति या सर्वेन्द्रियोपरम । असत्य, चोरी आदि का सम्बन्ध मुख्यत: मानसिक भूमिका से है। ब्रह्मचर्य दैहिक और मानसिक दोनों भूमिकाओं से सम्बन्धित है। अत: उसकी पालना के लिए शरीर-शास्त्रीय ज्ञान भी आवश्यक है। उसके अभाव में ब्रह्मचर्य को समझने में भी कठिनाई होती है। अब्रह्मचर्य के दो कारण हैं : १. मोह, २. शारीरिक परिस्थिति। व्यक्ति जो कुछ खाता है उसके शरीर में प्रक्रिया चलती है। उसकी पहली परिणति रस है । वह शोणित आदि धातुओं में परिणत होता हुआ सातवीं भूमिका में वीर्य बनता है। उसके बाद वह ओज के रूप में शरीर में व्याप्त होता है। ओज केवल वीर्य का ही सार नहीं है। वह सब धातओं का सार है। शरीर में अनेक नाड़ियां हैं। उनमें एक काम-वाहिनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003076
Book TitleTat Do Pravah Ek
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1967
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size5 MB
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