SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ / अश्रुवीणा अनुवाद - (हे श्रद्धे!) जहाँ पर तू वाणी का आश्रय लेती हो (मुखर होती हो) वहाँ महान् आनन्द स्फुरित होता है। जहाँ तुम मौन का अवलम्ब लेती हो वहाँ दुःख उच्छलने लगता है (दुःख का साम्राज्य व्याप्त हो जाता है)। सुख अथवा दुःख की सप्रयोग (प्रयोगात्मक) परिभाषा तुम कहती हो। तुमको छोड़कर (तुम्हारी निन्दा कर) अपनी मति में उलझे हुए तार्किक लोग इस विषय में (सुख-दुःख की प्रयोगात्मक परिभाषा में) मूढ़ हो जाते हैं। व्याख्या - इस श्लोक में श्रद्धा का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। यत्र वाणीं श्रिताऽसि तत्र सुमहान् आनन्दो स्फुरति - हे श्रद्धे ! यत्र त्वं वाणी श्रिताऽसि मौखर्यमवलम्बिताऽसि तस्मिन्नेव आनन्दधारा प्रवहति । जहां पर तुम वाणी का अवलंब लेती हो वहाँ आनन्द स्फुरित होता है - आनन्द का साम्राज्य व्याप्त हो जाता है। श्रद्धा युक्त वाणी अधिक सशक्त एवं सामर्थ्य शक्ति से संबलित हो जाती है। कवि का स्पष्ट अभिप्राय है कि श्रद्धा के धरातल पर वह सब कुछ सहज ही उपलब्ध हो जाता है जिसकी प्राप्ति इस देह में भी दुर्लभ है । उपनिषद् -- वाङ्मय, आगम साहित्य एवं गीता ने श्रद्धा के महत्त्व को स्वीकार किया है। श्रद्धायाः संयोगादेव जनः निकृष्टमुत्कृष्टं इति अनुभवति। श्रद्धाऽभावे सति कुशल चतुरजनानां वचनमपि अविश्वासयोग्यमग्रहनीयमिति भवति । पूज्यापूज्य - ग्रहणीय - अग्रहणीय - सजन दुर्जनादिविषयेषु श्रद्धायाः भावाभावौ एव मानदण्डरूपेण स्वीक्रीयेते । अर्थात् श्रद्धासद्भावात् कोऽपि जनः सज्जनो भवति तदभावात् दुर्जनो भवति। श्रद्धापात्रो पूज्यो भवति। श्रद्धारहितो निन्दनीयो भवति। भारतीय वाङ्मय में श्रद्धा का महत्त्व स्वीकृत है। संसार का आद्य ग्रंथ ऋग्वेद का स्पष्ट उद्घोष है कि श्रद्धा से तेज जागृत होता है - श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः ऋग्वेद 10.151.1 अर्थात् श्रद्धा से बह्मतेज प्रज्वलित होता है और श्रद्धा से ही हवि (दानादि) अर्पण किया जाता है। श्रद्धा से पूर्ण विभूति एवं महदैश्वर्य की प्राप्ति सहजतया हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy