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________________ ४६ / अश्रुवीणा श्रद्धे! मुग्धान् प्रणयसि शिशून् दुग्ध-दिग्धास्यदन्तान्, भद्रानज्ञान् वचसि निरतांस्तर्क बाणैरदिग्धान् । विज्ञाश्चापि व्यथितमनसस्तर्क लब्धावसादात्तर्केणाऽमा न खलु विदितस्तेऽनवस्थानहेतुः॥ अन्वय- श्रद्धे! दुग्धदिग्धास्यदन्तान् मुग्धान् भद्रान् अज्ञान् वचसि निरतान् तर्कबाणैरदिग्धान् शिशुन् प्रणयसि।तर्क लब्धावसादात् व्यथितमनसः विज्ञांश्चापि (प्रणयसि)। तर्केण अमा ते अनवस्थान हेतुः न विदितः । __ अनुवाद – हे श्रद्धे! जिनके मुख और दाँत दुग्ध से सने हुए हैं (जो दुधमुँहे हैं), जो मुग्ध, भद्र, अज्ञ, वाणी पर सहज विश्वास करने वाले तथा तर्क के बाणों से असंपृक्त हैं, वैसे बच्चों से तुम प्रेम करती हो (उनका आलिङ्गन करती हो। ) (अथवा) जो तर्क के बाणों से (परिणाम विरसता को जानकर) दु:खी होकर खिन्न मनवाले हो चुके हैं (ऊब गए हैं) वैसे विद्वान् पुरुषों से भी प्रेम करती हो। (परन्तु), तर्क के साथ तुम्हारा मेल नहीं बैठता है - इसका कारण ज्ञात नहीं है। व्याख्या - तेरा पंथ धर्मसंघ के दशम आचार्य श्री महाप्रज्ञ की यह रचना है। प्रथम श्लोक में श्रद्धा की व्याख्या की गई है। श्रद्धे!- श्रद्धा शब्द का सम्बोधन एक वचन में प्रयोग हुआ है। अत् (उपसर्ग या उपपद) पूर्वक जुहोत्यादिगणीय डुधाञ् (धाञ्) धारणपोषणयो: धातु से अङ् (अ) और टाप् (आ) प्रत्यय करने पर श्रद्धा शब्द बनता है। श्रत् को अव्यय एवं सत्य का वाचक माना गया है। वैदिक निघण्टु में श्रत् को सत्य का वाचक या पर्याय के रूप में स्वीकार किया गया है। वहाँ पर ऋत और सत्य के छ: नामों में अत् शब्द को संगृहीत किया गया है - बट् श्रत् सत्रा अद्धा इत्था ऋतमिति सत्यस्य षट्नामानि - निघण्टु 3.10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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