SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अश्रुवीणा / 161 व्याख्या-आशाबन्ध दृढभूमि पर प्रतिष्ठित था कि भगवान् जरूर आएंगे। भगवान् जब भिक्षा के लिए आगे बढ़े तो चन्दनबाला को लगा कि अब मनोरथ पूर्ण होने वाला है। इसलिए आशा की गाँठ थोड़ी ढीली हुई / भिक्षा के लिए प्रसृत हाथों का सुन्दर बिम्ब उभरा है। उत्प्रेक्षा अलंकार है। (90) एतौ पाणी सुचिरतपसा कार्यमायातवन्तौ, माषान् वोढुं किमिह गुरुकान् शक्ष्यतश्चापि शक्तौ। चिन्तामेतां मनसि दधती विस्मृतिं साऽथ निन्येऽन्त्राणि व्यक्तं स्पृशति हृदयं यन्न गुढं कदाचित्॥ अन्वय- सुचिरतपसा एतौ शक्तौ पाणी कार्यमायातवन्तौ / किमिह गुरुकान् विस्मृतिम् निन्ये। यत् व्यक्तम् हृदयम् स्पृशति गूढम् कदाचित् / अनुवाद- दीर्घकाल के तप से सुदृढ़ (शक्तिमान) हाथ कृश हो गये हैं। क्या इन भारी उड़दों के बोझ को ढोने में समर्थ भी हो पायेंगे। वह चन्दनबाला इस प्रकार मन में चिन्ता करती हुई आँतों (पचाने में असमर्थ) को भूल गई। क्योंकि व्यक्त पदार्थ हृदय का संस्पर्श करता है, छिपा हुआ पदार्थ हृदय तक नहीं पहुँच पाता है। व्याख्या- भगवान् के सुदीर्घ हाथ कृश हो गए हैं। उड़द के बोझ को ढो पाएँगे या नहीं - यह चिन्ता चन्दनबाला को सता रही है। हाथ व्यक्त हैं इसलिए के कारण कमजोर पड़ गई हैं / क्या वे उड़द को पचा पायेंगी, इस तरह का चिन्तन उसके मन में नहीं आया क्योंकि आँतें छिपी रहती हैं। काव्यलिंग, अर्थापति और अर्थान्तरन्यास अलंकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy