SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ / अश्रुवीणा (६१) पीडाकू ले जिनवर मसौ दीर्घनिःश्वासवातक्षिप्तैर्दूरं स्नपयितुमिव प्राभवच्छीकरौप्रैः। यच्छू द्वेयानरतिनिरता आक्षिपेयुश्च तत्र, स्नोहोत्कर्षस्तदिह कृतिभिः सन्ति ते वन्दनीयाः॥ अन्वय-असौ पीडाकूले जिनवरम् दीर्घ निःश्वास वातक्षिप्तैः शीकरौधैः दूरम् स्नपयितुम् इव प्राभवत्। यत् अरतिनिरताः श्रद्धेयान् आक्षिपेयुः। तत्र स्नेहोत्कर्षः। तदिह ते कृतिभिः वन्दनीयाः सन्ति। अनुवाद-वह चन्दनबाला पीड़ा रूप नदी (चंदना की पीड़ा नदी) के तट पर स्थित जिनवर भगवान् को दीर्घ नि:श्वास रूप पवन से फेंके गये आँसुओ के बूंदों से (बौछार से) दूर से ही मानो स्नान कराने में समर्थ हो गयी। पीड़ासक्त (चिन्तातुर) व्यक्ति श्रद्धेयजनों पर ही आक्षेप करते हैं । यहाँ पर (आक्षेप करने में) स्नेह का उत्कर्ष ही कारण है । इसलिए इस संसार में श्रद्धालु विद्वानों के द्वारा वन्दनीय होते हैं। व्याख्या कूल-तट, किनारा। शीकर वायुप्रेरित छींटे, बौछार, सूक्ष्मवृष्टि औघ=बाढ़, जलप्लावन। शीकरौघ बूंदों की बौछार। अरति निरता-कष्टासक्ता। अरति पीड़ा, कष्ट, चिन्ता, खेद, बेचैनी। निरत संलग्न, अनुरक्त, आसक्त, लगा हुआ। कृतिभि विद्वििद्भः पण्डितैः चतुरैर्वा। विद्धानों के द्वारा। इस श्लोक में उत्प्रेक्षा, रूपक, काव्यलिंग और अर्थान्तरन्यास अलंकार है। स्नपयितुमिव-उत्प्रेक्षा, पीडाकुले, निःश्वास-वात-रूपक अलंकार। अरति निरता-आक्षिपेयुः काव्यलिंग, अन्तिम विशेष का पूर्व के द्वारा समर्थन-अर्थान्तरन्यास अलंकार, माधुर्य गुण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy