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________________ १३२ / अश्रुवीणा द्वाभ्याम् तु युग्मकम्-साहित्यदर्पण 6.314। ध्वन्यालोक, अग्निपुराणकार एवं हेमचन्द्र ने इसे संदानितक कहा है । पर्याय अलंकार का सुन्दर उदाहरण है। काव्यलिंगालंकार भी है। (५८) गर्भेऽप्पर्भस्त्वमिह भगवन् ! मातरञ्चानुकम्प्य, सद्योऽरौत्सीः सहजचलनं लक्ष्म गर्भ गतानाम्। धाराश्रूणामगमदुदयं सौधमध्ये वरिष्ठा, को जानीयाज्जगति महतां साशयं चेष्टितानि ॥ अन्वय-भगवन्! त्वमिह मातरम् अनुकम्प्यगर्भम् गतानाम्लक्ष्म सहजचलनम् सद्यो अरौत्सीः। सौधमध्ये अश्रूणाम् वरिष्ठा उदयम् अगमत् । जगति महतां साशयम् चेष्टितानि को जानीयात्। अनुवाद- भगवन् ! गर्भकाल में अपनी माता पर अनुकम्पा कर गर्भस्थ जीवों (गर्भ में आए जीवों) के लक्षण सहज चलन (हलन-चलन) को भी सद्यः रोक दिया।(गर्भस्थ बच्चे को मृत समझकर) महल में आँसुओ की वेगवती धारा बह चली (सभी रोने लगे)। संसार में महान् पुरुषों की साभिप्राय चेष्टाओं को कौन जान सकता है। व्याख्या- महावीर भगवान् जब गर्भावस्था में थे तो बच्चे के जीवन का लक्षण-सहज हलन चलन को भी उन्होंने परित्याग कर दिया। इससे बच्चे को मृत समझकर सभी रोने लगे। कल्पसूत्र (87-88), आवश्यक चूर्णि चउप्पन्न महापुरिसचरियं, महावीरचरियं और त्रिषष्ठी शलाका पुरुष चरित्र में एक प्रसङ्ग है कि जब गर्भ में भगवान् थे तब उन्होंने सोचा-मेरे हिलने-डुलने से माता को कष्ट होता है। मुझे इसमें निमित्त नहीं बनना चाहिए। यह सोचकर वे निश्चल हो गए। अंगोपांगों को भी सिकोड़ लिया। माता यह सोचकर कि बच्चे का क्या हुआ, क्या वह मर गया? दहाड़ मारकर रोने लगी।सारा परिजन वर्ग रोने लगा। भगवान् ने सोचा-यह तो बात उल्टी हो गयी। लोगों को मेरे कारण और अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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