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________________ अश्रुवीणा / ८१ भी बन जाते हैं । माधुर्य गुण है। साभिप्राय विशेषणों के प्रयोग से परिकरालंकार भी है। भक्ति एवं भक्त की मनोदशा की दृष्टि से यह श्लोक मननीय है। (१४) आशास्थानं त्वमसि भगवन् ! स्त्रीजनानामपूर्व, त्वतो बुद्ध्वा स्वपदमुचितं स्त्रीजगद् भावि धन्यम्। जिहां कृष्टवाऽसहनरथिकः काममत्तोऽम्बया मे, दृष्टिं नीतोऽस्तमितनयनस्तत्र दीपस्त्वमेव॥ अन्वय-भगवन् ! त्वम् स्त्रीजनानाम् अपूर्वं आशास्थानं असि । स्त्रीजगत् उचितम्स्वपदम् त्वतो बुद्ध्वा धन्यम् भावि । मे अम्बया जिह्वां कृष्टवा काममत्तो अस्तमितनयनः असहनरथिकः दृष्टिं नीतः। तत्र त्वमेव दीपः। अनुवाद- भगवन् ! तुम स्त्री जगत् (महिला-संसार) के लिए अपूर्व आशास्थान हो। स्त्री जगत् अपने उचित स्थान (अपनी उचित शक्ति) को जानकर धन्य होगा। मेरी माता (धारिणी) ने अपनी जिह्वा खींचकर कामोन्मत्त, अस्तमितनयन (अज्ञानी, अविवेकी) और क्रूर रथिक की आँखें (ज्ञाननेत्र) खोल दी थी। उस समय आप ही दीप थे (मेरी माता के लिए प्रकाश-स्तम्भ थे)। व्याख्या- यहाँ भगवान् महावीर की महत्ता का निर्देश किया गया है। स्त्रीजनों के लिए आप ही अपूर्व आशास्थान हैं । व्यतिरेकालंकार। भगवन्-महावीर के लिए सम्बोधन । भगवान् शब्द का संबोधनात्मक प्रयोग है। जो भग को धारण करे वह भगवान है। भग की परिभाषा है ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीर्यते ॥ इति स्मृतेर्भगः षडविधमैश्वर्यं सोऽस्यास्तीति भगवान् । देखें श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन-डा. हरिशंकर पाण्डेय, पृ. 13 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003074
Book TitleAshruvina
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size7 MB
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