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________________ 156 समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा कैसे संभव है कि व्यक्ति पांचों इन्द्रियों के दरवाजे बंद कर दे और बाह्य जगत् से संपर्क विच्छिन्न कर जी सके? कुछ क्षणों के लिए यह संभव हो सकता है पर जीवन भर के लिए संभव नहीं है। अध्यात्म के आचार्यों ने इस समस्या का भी उपाय खोजा। पहला उपाय यह है - इन्द्रियों के दरवाजों को कुछ समय के लिए बंद रखें। कुछ समय के लिए आंखे बंद रहे, एक घंटा ध्यान में बिताएं, अरूप की स्थिति का अनुभव होगा, सारे रूप समाप्त हो जाएंगे। यह अरूप की अनुभूति आत्मा की अनुभूति है। इसके साथ चेतना जुड़ी हुई है और चेतना की अनुभूति भी। प्रश्न होता है - एक घंटा इस स्थिति में रहने से क्या होगा? आखिर उसी दुनिया में जाना है, जिसमें दृश्य और रूप ही रूप हैं। उपाय खोजा गया - आंख बंद करना ही जरूरी नहीं है, आंख खुली रखो और अरूप रहो। कान खुला रहेगा, फिर भी अशब्द रहोगे। खाना जीभ पर आएगा, फिर भी अरस रहोगे। स्पर्श होगा पर अस्पर्श रहोगे। यह सब कैसे संभव है? यह संभव होता है चेतना की दिशा को बदलने से। ध्यान एक ऐसी प्रक्रिया है, जो चेतना की दिशा को बदल देती है। चेतना न जुड़े इन्द्रियों से चेतना को न जुड़ने दें। यदि यह बात समझ में आ जाए तो दिशा परिवर्तन का रहस्य उपलब्ध हो जाए। यदि चेतना इन्द्रियों के साथ नहीं जुड़ेगी तो इन्द्रिय विषयों का ग्रहण नहीं होगा। तर्कशास्त्र की भाषा में यह अनध्यवसाय है। एक व्यक्ति बाजार गया। उसे सोना खरीदना है। बाजार में हजारों दुकानें हैं, उनमें हजारों-हजारों प्रकार की वस्तुएं उपलब्ध हैं। व्यक्ति उन सबको देखता चला जाता है। वह सोने की दुकान पर सोना देखता है, उसे खरीद लेता है। सोने के सिवाय भी उसने अनेक वस्तुओं को देखा लेकिन वह देखना न देखने जैसा रहा। जिसके साथ अध्यवसाय जुड़ा, उसे देखा; और सब अनदेखा रह गया है। अंतर्मुखता हम पदार्थ के साथ उतनी ही चेतना जोड़े जितना उस वस्तु को जानने के लिए अपेक्षित है। उसके साथ मुर्छा की चेतना को न जोड़ें। इस स्थिति में आंख के सामने कोई सुन्दर रूप आ जाएं अथवा जीभ पर कोई स्वादिष्ट मिष्ठान्न आ जाए, वह हमारे लिए कोई महत्त्व नहीं रखेगा। हम अरूप और अरस की स्थिति में बने रहेंगे। आचारांग सूत्र में कहा गया- रूप न देखें, शब्द न सुनें, यह संभव नहीं है। संभव यह है - रूप For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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