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________________ 110 समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा लेते हैं तो उसे बदलना ही नहीं चाहते। हम आत्मा का संदर्भ लें। प्रत्येक आस्तिक आदमी आत्मा को स्वीकार करता है पर उसके बारे में हमारी धारणाएं समान नहीं हैं। एक दर्शन कहता है-आत्मा सुख दुःख की कर्ता है। एक दर्शन का अभिमत है-आत्मा बिल्कुल निर्लिप्त है, शुद्ध, बुद्ध और अकर्ता है। समयसार में ऐसे अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं, जिनसे यह पता चलता है कि आत्मा के सदंर्भ में अनेक प्रकार के विचार एवं दृष्टिकोण रहे हैं। इस आग्रह-चेतना की ओर इशारा करने वाली कुछेक गाथाएं हैं तम्हा ण को वि जीवो वघादओ अत्थि अम्ह उवदेसे। जम्हा कम्म चेव हि कम्म घादेदि इदि भणिदं।। एवं संखुवएसं जे दु परूवेंति एरिसं समणा। तेसिं पयडी कुव्वदि, अप्पा य अकारगा सव्वे।। अहवा मण्णसि मज्झं, अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि। एसो मिच्छसहावो, तुम्ह एवं मुणंतस्स।। कोई भी जीव उपघातक नहीं है, क्योंकि कर्म ही कर्म को मारता है। इस प्रकार सांख्य मत का उपदेश जो श्रमण प्ररूपित करते हैं, उनके मत में प्रकृति ही कर्ता है, आत्मा अकर्ता है। यदि यह मानते हो-मेरी आत्मा अपनी आत्मा की कर्ता है तो ऐसा जानने वाले व्यक्ति का यह मिथ्या स्वभाव है। सामंजस्य का सूत्र एक ओर आत्मा को अकर्ता माना जा रहा है तो दूसरी ओर उसे सुख दुःख का कर्ता माना जा रहा है। अपनी- अपनी पकड़ और अपना-अपना मत-आग्रह। अगर सामंजस्य बिठाना है तो आग्रह को छोड़ना होगा। आत्मा कर्ता भी है, अकर्ता भी है। वह अपने भावों की कर्ता है, पर भाव की कर्ता नहीं है। जं भाव सहुमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता। तं तस्स होदि कम्म, सो तस्स दु वेदगो अप्पा।। आत्मा कर्ता है, यह इस दृष्टि से सही है कि आत्मा अपने शुभ-अशुभ भाव की कर्ता है। आत्मा अकर्ता है, यह भी सही है क्योंकि वह पर-भाव की कर्ता नहीं है. वह किसी बाहरी वस्त का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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