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________________ 100 समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा होगी। यह क्रोध की समस्या बहुत व्यापक है। मैं मानता हूं, यह एक जन्मजात-जन्मगत समस्या ही है। तोड़ता है अहंकार जैसे पारिवारिक विघटन में क्रोध का आवेश एक मुख्य कारक तत्व बनता है वैसे ही अहंकार की भी पारिवारिक विघटन में कम भूमिका नहीं है। एक व्यक्ति का अहंकार समूचे परिवार की स्थिति को गड़बड़ा देता है। अहंकारी व्यक्ति दूसरों की बात को सुनता भी नहीं है, मानता भी नहीं है। वह अपनी अहंकार की वृत्ति को ही पोषित करता रहता है। उसके अपने मन में जो जंचता है, वह वही करता है। अहंकार में व्यक्ति दूसरे लोगों से यहां तक कहते सने जाते हैं कि तमने जितना अनाज खाया है. मैंने उतना नमक खा लिया है। मुझे क्या समझ रहा है? यह अहंकार का आवेश बड़ा भयंकर आवेश होता है। अहंकारी मनुष्य में पुरुषार्थ कम होता है, अकर्मण्यता ज्यादा होती है, निठल्लापन ज्यादा होता है। जब अहंकार जामता है, आदमी का पुरुषार्थ सो जाता है। क्रोध और अहंकारये दोनों प्रकार के आवेश व्यक्ति को बहुत गिराते हैं। आवेश कभी जोड़ता नहीं, तोड़ता है। अहंकारी आदमी अपने आपको ही श्रेष्ठ मानकर चलता है। वह कैसे जोड़ेगा? जहां में श्रेष्ठ हूं और दूसरे अपकृष्ट हैं, हीन हैं, वहां दूसरे लोग कैसे जुड़ेंगे? अकड़ : पकड़ ये आवेश पारिवारिक और सामदायिक जीवन जीने में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न करते हैं। सामदायिक और अच्छा पारिवारिक जीवन वही व्यक्ति जी सकता है. जिसमें विनम्रता होती है. अहंकार का आवेश नहीं होता। जो व्यक्ति बड़ा होकर भी विनम्र होता है, उसी का जीवन शांतिमय होता है। राजस्थान अकडन के लिए प्रसिद्ध रहा है। मारवाड भी अकड़न के लिए प्रसिद्ध रहा है। अकड़ और पकड़ – दोनों यहां के लोगों के स्वभाव का अंग रहे हैं। जिस बात को पकड़ लेते हैं, उसे छोड़ते नहीं। राजस्थानी का प्रसिद्ध दहा है तुम आवो डग एक तो हम आएं अट्ठ। तुम हमसे करड़े रहो तो हम हैं करड़े लट्ठ।। लोभ का आवेश तीसरा है लोभ का आवेश। सामदायिक चेतना के न जागने में, पारिवारिक विघटन में लोभ का हाथ भी कम नहीं है। एक व्यक्ति के मन में लोभ जागता है, सब कछ टूटना-बिखरना शुरु हो जाता है। लोभ के कारण आदमी सारी सफलताओं से भी वंचित रह जाता है। दूसरे का आगे Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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