SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियति और पुरुषार्थ / ६५ है। धर्म के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। केवल मात्रा का भेद है, शक्ति का भेद है। साधु धर्म की आराधना समग्रता से करता है और श्रावक धर्म की आराधना खण्डश: करता है। आचार्य भिक्षु ने उदाहरण देते हुए कहा-एक के हाथ में 'चौगुनी' का पूरा लड्डू है और दूसरे के हाथ में उसी लड्ड का एक भाग है। लड्डू के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। एक है पूरा और एक है अधूरा। इसी प्रकार साधना के आधार पर, पुरुषार्थ के आधार पर दो श्रेणियां बन गईं-साधु और श्रावक। दोनों में धर्म की आराधना करने की शक्ति की तरतमता है, पर दोनों का धर्म एक है। __ शक्ति की अनेक बाधाएं हैं। उनमें संज्ञाएं मुख्य हैं। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया और लोभ-ये संज्ञाएं शक्ति को बाधित करती हैं । किसी व्यक्ति में इन संज्ञाओं पर विजय पाने की शक्ति जाग जाती है और वह अपनी शक्ति को धर्म की आराधना में समग्रता से प्रयुक्त कर देता है। जिस व्यक्ति में यह क्षमता नहीं जागती वह धर्म की आराधना में अपनी शक्ति को पूर्ण रूपेण नहीं लगा सकता। ये सज्ञाएं आदमी को बहुत सताती हैं और उसकी शक्ति छिन्न-भिन्न कर डालती हैं। जैन-दर्शन ने इन संज्ञाओं के परिष्कार का मार्ग सुझाया है। समाज में रहने वाला व्यक्ति लोभ और काम से सर्वथा मुक्त हो जाए, यह संभव नहीं है। पर इनका परिष्कार किया जा सकता है। जो इनको सर्वथा छोड़ता है, वह मुनि बन जाता है और जो इनको सर्वथा नहीं छोड़ता, वह गृहस्थ में रह जाता है। उसके लिए दो मार्ग निर्दिष्ट हैं-व्यावहारिक और आन्तरिक। आन्तरिक मार्ग है-निर्लेपता की साधना।। भरत चक्रवर्ती ने निर्लेपता की साधना की। जैन साधना पद्धति का मुख्य सूत्र है निर्लेपता। जैसे धाय मां बच्चे का पालन-पोषण करती है, प्यार-दुलार देती है पर अन्त:करण से समझती है कि बच्चा मेरा नहीं है। उसे यह भान सदा बना रहता है। श्रावक को भी साधना का यह सत्र दिया गया है कि वह कुटुम्ब का प्रतिपालन करता है, व्यापार करता है, खेती करता है और कोई व्यवसाय करता है, पर अन्तर में यह समझता है कि मैं अकेला हं। भगवान महावीर ने अनित्य अन्प्रेक्षा, अशरण अनुप्रेक्षा, एकत्व अनुप्रेक्षा, अन्यत्व अनुप्रेक्षा आदि अनुप्रेक्षाओं का सूत्र दिया, जिससे कि मूर्छा को कम किया जा सके, आसक्ति को कम किया जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy