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________________ निष्काम कर्म और गीता ९१ दोनों बैठे । खाना शुरू किया । खाते-खाते न जाने उस व्यक्ति का मन कहां से कहां चला गया । साधक ने पूछा- 'क्या तुम खा रहे हो ?' हां, खा तो रहा हूं । केवल खा रहे हो ? और कुछ तो नहीं कर रहे हो ? यह कैसे हो सकता है ? मैं सोच भी रहा हूं । तुम यह नहीं कर सकते । इसीलिए तो मैंने कहा था साधना यही है कि भूख लगे तब खा लेना और नींद आए तब सो जाना । कौन आदमी वास्तव में सोता है ? नींद सोते ही आती नहीं और आती है तो वह सपनों की नींद बन जाती है, वास्तविक नींद का पता ही नहीं चलता । सपने ही सपने आते हैं । निःस्वप्न नींद, कोरी नींद लेना और कोरा खाना बड़ा कठिन है । महत्त्वपूर्ण खोज यही बात ताओ धर्म के प्रवर्तक से पूछी गई— 'गुरुदेव ! साधना क्या है ?' उन्होंने एक शब्द में उत्तर दिया- 'साधना है केवल सुनना ।' बड़ा कठिन है केवल शब्द सुनना । सुनना साधारण बात है पर जब 'केवल' लग जाता है, तब बहुत कठिन स्थिति प्रस्तुत हो जाती है। कोरा सुनना और कुछ न करना, जब यह स्थिति बनती है तब गीता का निष्काम कर्म फलित हो जाता है । कर्म भी करना और अकर्म बने रहना, यह बहुत महत्त्वपूर्ण खोज है । ऐसा सूत्र खोजा गया, जिससे न तो काम छूटता है और न काम का बंधन साथ में रहता है । हम गीता के शब्दों में पढ़ें- जो व्यक्ति कर्म के फल को छोड़ देता है, आसक्ति को छोड़ देता है, फलाशंसा नहीं करता, वह कृतकृत्य है, वह कर्ता है, कर्म में व्याप्त होता हुआ भी वह कुछ भी नहीं कर रहा है । वह करता भी है और नहीं भी कर रहा है, यह अनेकान्त है । वह इसलिए नहीं कर रहा है कि कर्मफल की आसक्ति उसमें नहीं है । आसक्ति उसने छोड़ दी । वह अपने आपमें तृप्त है, अतृप्त नहीं है । राग नहीं है, प्रियता का भाव नहीं है, मात्र अनिवार्यता का कर्म कर रहा है । उसकी कामना छूट गई, कर्म बंधता है कामना से । जहां कामना छूट गई, फलाशंसा छूट गई, केवल अनिवार्यता के लिए काम किया जा रहा है वहां कर्म अकर्म बन जाता है, निष्काम बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003069
Book TitleAmantran Arogya ko
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size9 MB
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