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________________ अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म का अर्थ अधर्म की विजय ६६ आधारभित्ति से भी विमुख हो जाता है। सत्य और विश्वसनीय व्यवहार के बिना क्या सामाजिक जीवन का कोई अस्तित्व है? मनुष्य एक-दूसरे के विश्वास पर समुदित हुआ है। इसी विश्वास के आधार पर जीवन का व्यवहार चल रहा है। गोद में सोए हुए का सिर काटने की मनोवृत्ति यदि व्यापक होती तो मनुष्य अकेला होता, जंगली होता, सामाजिक जीवन जीने का अधिकार उसे प्राप्त नहीं होता। पर ऐसा नहीं है। मनुष्य में सत्य की आस्था है। सत्य के पौधे पर विश्वास के फूल खिले हुए हैं। उन्हीं की सुगन्धि से प्रमुदित मनुष्य सामुदायिकता के मंच पर अनेक प्रकार के अभिनय कर रहा है। सत्य को केन्द्र से रखे बिना सामाजिक विकास नहीं हो सकता तो क्या धर्म की उपेक्षा कर वह किया जा सकता है? मैं पूरी निष्ठा के साथ कहूंगा कि नहीं किया जा सकता। धर्म और क्या है? वह सत्य ही तो धर्म है। एक संस्कृत कवि ने कहा है-'जिस व्यक्ति के दिन धर्म से शून्य होते हैं, वह लोहार की धौंकनी की भांति श्वास लेता है, पर जीता नहीं है।' यदि यह बात मैं कहता तो मेरी भाषा यह होती कि वह श्वास भी नहीं ले सकता। क्या भूखे भेड़िये की शरण में जाकर कोई श्वास ले सकता है? क्या हिंसा, क्रूरता, असत्य और चौर्य के साम्राज्य की सष्टि कर मनुष्य सामाजिक जीवन जी सकता है? यह असम्भव है तो मैं कहूंगा कि धर्य के बिना जीना असम्भव है। पतझड़ आता है। पेड़ के पत्र, पुष्प और फल सभी झड़ जाते हैं। वसन्त आता है और पेड़ फिर पत्र, पुष्प और फल से भर जाता है। यह क्रम चलता ही रहता है। धर्म की परिधि में सत्ता और अर्थ आ जाते हैं, तब एक विचार-क्रान्ति होती है। और धर्म की परिधि सिमट जाती है। फिर उसके अनुशासन की अपेक्षा प्रतीत होती है और उसकी परिधि व्यापक हो जाती है। पतझड़ में भी पेड़ का अस्तित्व सुरक्षित रहता है। धर्म के परिवार का लोप हो जाने पर भी उसका अस्तित्व कभी विलुप्त नहीं होता। एक प्रासाद बनता है और पुराना होने पर ढह जाता है। प्रासाद बनने पर आकाश व्यक्त होता और उसके ढह जाने पर वह अव्यक्त हो जाता है पर आकाश का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता। धार्मिक लोग अच्छे होते हैं, धर्म व्यक्त हो जाता है। धार्मिक लोग बाहरी क्रियाकाण्डों में उलझ जाते हैं, धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003068
Book TitleMain Mera Man Meri Shanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size9 MB
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