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________________ हिंसा की जड़ स्वाभाविक मनोवृत्ति माना गया है। हिंसा, सघर्ष और युद्ध मनुष्य की सहज वृत्ति है, मौलिक मनोवृत्ति है। उनके अनुसार हिंसा की जड़ है मौलिक मनोवृत्ति। परिवेश वैज्ञानिक इससे सहमत नहीं हैं । वे मानते हैं कि हिंसा की जड़ है वातावरण, परिवेश । जिस प्रकार का वातावरण होता है, आदमी वैसा ही बनता है । हमारे वातावरण में हिंसा के तत्त्व विद्यमान् हैं। ऐसी परिस्थिति मिलती है कि एक बच्चा प्रारम्भ से ही अपराध में चला जाता है, हिंसा करने लग जाता है। सारे समाज का वातावरण और परिवेश ही ऐसा है, जहां हिंसा सीखने को मिलती है। हिंसा की मूल जड़ है परिवेश । दार्शनिकों ने इन सबसे हटकर कहा-हिंसा की जड़ है कर्म । आदमी का जैसा कर्म-संस्कार होता है, वह वैसा ही बन जाता है । विमर्श समस्या का नाना प्रकार के मत हैं। जो जिस विषय का वैज्ञानिक है, जिस विषय का तार्किक है, दार्शनिक है, उस प्रकार का मत है। नाना मतों से भरा हुआ है यह हमारा संसार । कोई एक मार्ग नहीं है । अलग-अलग रास्ते हैं। इन सब मतों पर विचार करें तो निष्कर्ष यह निकलेगा कि ये सारे एकांगी दृष्टिकोण हैं। सर्वांगीण किसी को नहीं कहा जा सकता । असत्य भी नहीं कहा जा सकता। जीन भी एक कारण बनता है । परिवेश भी एक कारण बनता है। मौलिक मनोवृत्ति भी एक कारण बनती है। कर्म भी एक कारण बनता है। ये अनेक घटक हैं जो मिलकर घटना का निर्माण करते हैं। एक घटना के लिए कोई भी एक सर्वथा उत्तरदायी नहीं है। सबका योग मिलता है तो इस प्रकार की घटना घटित होती है। हमें सर्वांगीण दृष्टि से विचार करना है। हिंसा की जड़ जीन में भी है, परिवेश में भी है, मौलिक मनोवृत्ति में भी है । ये सब यदि एक-एक हैं तो किसी में भी नहीं है और सब मिल जाते हैं तो सब में है। पौधे के उगने में बीज एक कारण है, किंतु कोरा बीज है और ऊर्वरा भूमि नहीं है और भूमि ऊर्वरा है बीज भी है, पर पानी नहीं है तो पौधा नहीं उगेगा। पानी भी है, पर न धूप है और न हवा है, तो पौधा नहीं उगेगा। सारी सामग्री चाहिए। एक से कोई काम नहीं बनता । घटकों का समवाय होता है । अनेक मिलते हैं तब एक कार्य निष्पन्न होता है। हिंसा एक घटना है और हिंसा एक कार्य है। वह तब कार्य बनता है जब अनेक घटक मिल जाते हैं । उत्तरदायी कौन ? हम और थोड़ा चिंतन करें। अगर हिंसा की जड़ जीन में मान लें तो फिर ध्यान करने की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर शांति के प्रयत्नों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003065
Book TitleAhimsa ke Achut Pahlu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size9 MB
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