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________________ अतीत का अनावरण ७१ मुश्किल से दो-तीन श्लोक कंठस्थ कर पाते। हमारी रुचि इधर-उधर घूमने और बातें करने में ज्यादा रही। हमें इस स्थिति से बचाने के लिए मुनिवर हमारे साथ श्लोक रटते रहते। दो-तीन श्लोक रटने में आधा घंटा का समय बीत जाता, फिर दिन भर हम छुट्टी ही मनाते। हंसना और मुस्कराना-यह कोई सहज ही आदत बन गई थी। बहुत बार ऐसा होता कि कुछ शब्दों के उच्चारण-काल में हम हंस पड़ते। तब हमारा पाठ बंद हो जाता। हम समझते-बहुत अच्छा हुआ। फिर हमें राजी कर अध्ययन शुरू कराया जाता। किशोरावस्था की कुछ जटिल आदतों को यदि मनोवैज्ञानिक ढंग से न सम्हाला जाता तो शायद हम बहुत नहीं पढ़ पाते। हम जब श्लोक कंठस्थ नहीं करते तब हमें खड़ा कर दिया जाता। खड़ा रहना मेरे लिए बहुत कठिन था। आधा घंटा तक खड़ा रहना बहुत असह्य हो जाता, तब पानी पीने का या और किसी काम का बहाना लेकर मैं इधर-उधर घूम आता। यह स्थिति बहुत लम्बे समय तक नहीं चली, लगभग दो-ढाई वर्ष तक वह चली। उसके बाद हमें यथार्थ का कुछ-कुछ अनुभव होने लगा। जब तक यथार्थ का अनुभव नहीं हुआ तब तक इस कठोर अनुशासन में रहना बड़ा कठिन लगा। कालूगणी से शिकायत एक बार हम पूज्य कालूगणीजी के पास पहुंचे। हमने उनके चरणों में एक विनम्र प्रार्थना रखी। हमने कहा-'गुरुदेव! तुलसी स्वामी हम पर कड़ाई बहुत करते हैं।' पूज्य गुरुदेव ने पूछा-'किसलिए? हमने कहा-'पढ़ाने के लिए।' फिर पूछा- और किसीलिए तो कड़ाई नहीं करता? हमने कहा-'नहीं।' तब गुरुदेव बोले-‘पढ़ाई के लिए तो वह करेगा, इसमें तुम्हारी नहीं चलेगी।' हम अवाक् रह गए। आए थे आशा लिये, हाथ लगी निराशा। आचार्यवर ने कहानी सुनाई-राजा के पुत्र के सिर पर अध्यापक ने अनाज की पोटली रख दी। पढ़ाई समाप्त हुई। विद्यार्थी की परीक्षा के लिए अध्यापक राजसभा में जा रहा था। बीच में अनाज की दुकान आयी। गेहूं खरीदे। उनकी पोटली बांधी और विद्यार्थी राजकुमार को उसे उठाने को कहा। वह अस्वीकार कैसे करता, पर वह दब गया भार से और लज्जा से। परीक्षा हुई। वह सब विषयों में उत्तीर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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