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________________ १५ : राष्ट्रसंघ भावनाद्या, जाता । एको बहुस्यामिति संघप्रवृत्ति नुजेषु बहुप्रकाराः प्रचलन्ति संघाः, स्याद् राष्ट्रसंघोऽपि महांश्च तत्र ॥ १ ॥ 'मैं अकेला हूं, बहुत हो जाऊं - यह भावना आदिकाल से रही। इसी भावना संघबद्धत्ता को जन्म दिया। आज अनेक प्रकार के संघ विद्यमान हैं। उनमें 'राष्ट्रसंघ' एक महान् संघ है। प्राप्य राष्ट्राणि सर्वाणि च तत्र काञ्चित्, वादमुदीरयन्ति । निजस्याधिकृते विधातुं, स्थिति रक्षां स्वातन्त्र्य मर्हन्ति गतावकाशाः ॥२॥ सारे राष्ट्र वहां प्रतिनिधित्व प्राप्त कर कोई न कोई चिन्तन करते रहते हैं । अपनी प्रभुसत्ता की रक्षा करने के लिए सभी स्वतन्त्र हैं और उसके लिए सबको उचित अवसर प्राप्त है । Jain Education International परन्तु तत्र स्थितिरस्ति चित्रा, चीनस्य तुल्यं सुमहच्च राष्ट्रंम् । सदस्यतां न व्रजति प्रतीतं, किं राष्ट्रसंघोस्ति विडम्बना वा ॥३॥ किन्तु वहां की एक विचित्र स्थिति है। चीन जैसा विशाल राष्ट्र उसका सदस्य नहीं बन सका है। क्या यह राष्ट्रसंघ है या कोई विडम्बना ? यस्मिन् मनुष्या अपरैर्मनुष्येघृणां विरोधं च मिथो वहन्ते । स राष्ट्रसंघो यदि साम्यधारां, प्रवाहयेत् सार्थकतामुपेयात् ॥४॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003063
Book TitleAtula Tula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size8 MB
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