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________________ वे मूर्च्छा की धारा के समर्थक हैं। जो व्यक्ति आत्म-चेतना को जागृत करना चाहते हैं वे जागरूकता की धारा के समर्थक हैं । मूर्च्छा की धारा के समर्थक लोग व्यक्ति को मूर्च्छा की समाधि में ले जाते हैं । वे गांजा, चरस आदि मादक पदार्थों का सेवन कराते हैं और व्यक्ति को आत्म-विस्मृति, मूर्च्छा और विचारशून्यता में ले जाते हैं। वे उसे ऐसी दुनिया में ले जाते हैं जहां उसे समाधि का भान होता है। इस प्रकार व्यक्ति की आत्म- चेतना को लुप्त कर, केवल मूर्च्छा का समर्थन करने वाली धारा मूर्च्छा की धारा है । प्रेक्षा ध्यान की धारा मूर्च्छा की धारा नहीं है। यह जागरूकता की धारा है। इसका उद्देश्य है- सतत जागरूकता, एक क्षण के लिए भी आत्म-विस्मृति न हो, ज्योति सतत जलती रहे, अपने अस्तित्व का भाव निरन्तर बना रहे। व्यक्ति आत्म-चेतना को खो बैठे, बेभान हो जाए, ऐसी समाधि को हम समाधि नहीं मानते और ऐसी समाधि को हम महान् समाधि का मूल्य नहीं देते। हम उस समाधि का समर्थन करते हैं, उस समाधि को मूल्य देते हैं जिसमें विकल्पशून्यता आए, पर अस्तित्व का भान निरन्तर बना रहे। अस्तित्व के भान को भुलाकर होने वाली विकल्पशून्यता जागृति नहीं है, मूर्च्छा है। मूर्च्छा का प्रयोग हम नहीं चाहते । दीर्घश्वास- प्रेक्षा से मूर्च्छा टूटती है। मन शान्त होता है, स्थिर होता है । उसमें मूर्च्छा नहीं होती, अपने अस्तित्व की विस्मृति नहीं होती। इस प्रयोग में हम मन को जागरूक बनाए रखना चाहते हैं, जागरूक बनाए रखते हैं । समवृत्ति श्वास- प्रेक्षा में भी मन को अत्यन्त जागरूक रहना होता है । जब मन की जागरूकता क्षण भर के लिए भी टूटती है तो उसके साथ-साथ क्रम भी टूट जाता है। जब मन अजागरूक होता है तब यह संभव नहीं है कि व्यक्ति एक नथुने से श्वास ले और दूसरे नथुने से छोड़े। यह क्रम टूट जाता है। पूरा जागरूकता का प्रयोग है। शरीर प्रेक्षा भी पूरा जागृति का प्रयोग है। जैसे ही व्यक्ति मूर्च्छा में जाता है, शरीर प्रेक्षा का क्रम टूट जाता है, मन नींद में चला जाता है। शरीर का कण-कण तभी देखा जा सकता है जब मन पूरा जागरूक रहे । साथ-साथ विकल्पशून्य रहे। राग-द्वेष की ऊर्मियों से खाली रहे, निस्तरंग रहे । चैतन्य-केन्द्रों की प्रेक्षा का प्रयोग भी जागरूकता का लेश्या : एक विधि है चिकित्सा की ૧૬૬ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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