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________________ अल्प ऋद्धिवाला है। उनके मूल्यांकन का दृष्टिकोण भिन्न है । यदि वैभवशालिता और संपदा का यह दृष्टिकोण हमारे पास होता तो मन की अशान्ति का प्रश्न इतना जटिल नहीं होता । आज समूचे विश्व में मन की अशान्ति का प्रश्न बहुत ही जटिल बना हुआ है । उसका यही कारण है कि आदमी संपदा को एक आंख से देखता है । बाहर की संपदा को ही संपदा मानता है । एक आंख से देखे, किन्तु उसकी आंख फूटी हुई नहीं होनी चाहिए। वह उस दूसरी आंख से भीतरी संपदा को भी देखे, भीतर भी झांके । एक चारण कवि न्याय के लिए हाकिम के पास गया । हाकिम ने निर्णय ठीक नहीं किया, तब उसका कवि हृदय बोल उठासुन हाकम संग्राम कह, आंधो मत है यार । औरां रे दो चाहिजै, थांरै चाहिजै चार ॥ - हाकिम साहब अंधे मत होओ । उचित न्याय करो। दो आंख बाहर को देखने के लिए हैं और दो भीतर को देखने के लिए चाहिए । लेश्या की भाषा में मैं कह सकता हूं कि हमारे भी चार आंखें होनी चाहिए। दो आंखें बाहर की संपदा को देखने के लिए और दो भीतर की संपदा को देखने के लिए । किन्तु लगता ऐसा है कि बाहर की संपदा को देखने के लिए तो हमारी ये दो आंखें बहुत बड़ी बन जाती हैं, चार हो जाती हैं और भीतरी संपदा को देखने के लिए आंखें उपलब्ध ही नहीं हैं, आदमी अंधा बना हुआ है । महावीर ने लेश्या के सिद्धान्त में, लेश्या के आधार पर ऋद्धि और वैभव की चर्चा की। दो दृष्टिकोण होते हैं - एक है पदार्थ का और दूसरा है व्यक्तित्व का भाव और आचरण । जो व्यक्ति कृष्ण आदि तीन लेश्याओं में रहता है, उसे बाहरी संपदा कभी-कभार उपलब्ध भी हो जाती है, किन्तु व्यक्ति का आंतरिक जीवन समाप्त हो जाता है । अध्यात्म साधना के संदर्भ में हम यह स्पष्ट समझें कि दीपावली के इस महान् पर्व पर हम केवल धन की ही कामना न करें, किन्तु गुणों की कामना करें । हम केवल बाहरी व्यक्तित्व को सुखी बनाने की ही कामना न करें, किन्तु आन्तरिक व्यक्तित्व को सुखी, समृद्ध और आनन्दमय बनाने की कामना रंगों का ध्यान और स्वभाव - परिवर्तन १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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