SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हूं। मैं ज्ञानमय हूं। मैं दर्शनमय हूं। मैं आनन्दमय हूं। क्रोध मेरे ज्ञान को आवृत करता है। क्रोध मेरे दर्शन को आवृत करता है। क्रोध मेरे आनन्द को आवृत करता है। उसे विकृत करता है। वह मेरी शक्तियों को विनष्ट करता है। इस चिंतन से वह इस विवेक पर पहुंच जाता है-मैं क्रोध नहीं हूं और क्रोध मेरा स्वभाव नहीं है। स्वभाव-परिवर्तन के तीन सूत्र हैं-कायोत्सर्ग, अनुप्रेक्षा और विवेक। जब साधक ने यह मान लिया कि क्रोध मेरा स्वभाव नहीं है, मैं क्रोध नहीं हूं, तब बात बहुत सुलझ जाती है, ज्ञान स्पष्ट हो जाता है। जब ज्ञान स्पष्ट हो जाता है, तब चरण अपने आप आगे बढ़ने लगते हैं। भगवान ने कहा-'पढमं नाणं तओ दया। पहले ज्ञान स्पष्ट होना चाहिए। आत्म-सम्मोहन का एक कथन है-ज्ञान एक शक्ति है। ज्ञान जब स्पष्ट हो जाता है, तब आचरण की सुविधा हो जाती है। ___ स्वभाव-परिवर्तन का चौथा सूत्र है-ध्यान। दर्शन-केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित करें। दोनों भृकुटियों के बीच का स्थान है-दर्शन-केन्द्र। यह हमारे अन्तर्-ज्ञान का केन्द्र है। यह अन्तर्दृष्टि और सम्यक्-दृष्टि का केन्द्र है। जितना आन्तरिक ज्ञान प्रकट होता है, वह इसी केन्द्र से प्रकट होता है। जब ध्यान दर्शन-केन्द्र पर स्थापित होता है, तब अपनी बात को भीतर तक पहुंचाने में बड़ी सुविधा हो जाती है। मनोविज्ञान मानता है कि जो बात हमारे स्थूल मन तक पहुंचती है, वह कार्यकर नहीं होती। उससे व्यक्तित्व का परितर्वन नहीं हो सकता। जब हम दर्शन-केन्द्र पर ध्यान करते हैं तब हमारा विचार, हमारा संकल्प अन्तर्मन तक पहुंच जाता है। वह संकल्प लेश्या-तंत्र और अध्यवसाय-तंत्र तक पहुंच जाता है। परिवर्तन घटित होने लगता है। दर्शन-केन्द्र पर ध्यान करना चौथा चरण है। स्वभाव-परिवर्तन का पांचवां सूत्र है-शरण। हमें शरण में जाना होगा। आत्म-सम्मोहन के वर्तमान सिद्धान्त में शरण की बात नहीं मिलती। वहां आत्म-शिथिलीकरण, आत्म-विश्लेषण और आटो-सजेशन की बात मिलती है, स्वतः सूचना की बात मिलती है। किन्तु शरण की बात नहीं मिलती। स्वभाव-परिवर्तन का दूसरा चरण ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy