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________________ अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग अनुकम्पा से यानी सन्ताप आदि न देने से सुख- वेदनीय कर्म का बन्ध होता है । यही तत्त्व इसके पूर्ववर्ती पाठ में मिलता है । I गौतम ने पूछा-भगवन् ! जीवों के अकर्कश वेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं? 8 भगवान् ने कहा- प्राणातिपार्त-विरति यावत् परिग्रह की विरति से क्रोधत्याग यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के त्याग से जीव अकर्कश वेदनीय कर्म का बंध करते हैं । भगवान् महावीर ने प्रवृत्ति रूप अहिंसा का भी विधान किया है, किन्तु सब प्रवृत्ति अहिंसा नहीं होती । चारित्र में जो प्रवृत्ति है, वह अहिंसा है । अहिंसा के क्षेत्र में आत्मलक्षी प्रवृत्ति का विधान है और संसारलक्षी या पर-पदार्थ-लक्षी प्रवृत्ति का निषेध । ये दोनों क्रमशः विधि रूप अहिंसा और निषेधरूप अहिंसा बनते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- समिति - सत्व्यापार, यह प्रवृत्ति धर्म है और गुप्ति-असत् - व्यापार का नियंत्रण, यह निवृत्ति धर्म है P 1 'सर्व प्राणियों के साथ मैत्री रखो - यह भी प्रवृत्ति रूप अहिंसा का विधान करता है । वस्तु तत्त्व को जानने वाले व्यक्ति प्राणी मात्र को आत्म-तुल्य समझ कर पीड़ित नहीं करते । वे समझते हैं- जैसे कोई दुष्ट पुरुष मुझे मारता है, गाली देता है, बलात्कार से दास-दासी बना अपनी आज्ञा का पालन कराता है, तब मैं जैसा दु:ख अनुभव करता हूं, वैसे ही दूसरे प्राणी भी मारने-पीटने, गाली देने, बलात्कार से दास-दासी बना आज्ञा-पालन करने से दुःख अनुभव करते होंगे । इसलिए किसी भी प्राणी को मारना, कष्ट देना, बलात् आज्ञा मनवाना उचित नहीं इस प्रकार आत्मार्थी आत्मा की रक्षा करने वाला, आत्मा की शुभ प्रवृत्ति करने वाला, संयम के आचरण में पराक्रम प्रकट करने वाला, आत्मा को संसाराग्नि से बचाने वाला, आत्मा पर दया करने वाला, आत्मा का उद्धार करने वाला साधु अपनी आत्मा को सब पापों से निवृत्त करे । अहिंसा की परिभाषा भारतीय संस्कृति अध्यात्म-प्रधान संस्कृति है । अध्यात्म की आत्मा अहिंसा है। प्राचीन ऋषि महर्षियों से लेकर वर्तमान के महापुरुषों तक ने न केवल अहिंसात्मक भावना पर बल दिया अपितु अहिंसा को आदर्श बनाने का हर संभव प्रयास किया है। भारत के प्रायः सभी दर्शनों में अहिंसा की अवधारणा मिलती है । विविध विद्वानों एवं दार्शनिकों ने अहिंसा को अपनी-अपनी दृष्टि से परिभाषित करने का प्रयास किया है। 1. भगवती 7/6 2. उत्तराध्ययन 24/26 3. उत्तराध्ययन 6/2 : मेत्तिं भूएसु कप्पए 14. सूत्रकृतांग 2/1/15 5. वही, 2/2/42 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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