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________________ 96 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग स्वभाव और अन्तःस्रावी ग्रथियां स्वभाव और अन्तःस्रावी ग्रथियों में परस्पर गहरा संबंध है। जिस व्यक्ति की अन्तःस्रावी ग्रन्थियां ठीक ढंग से काम करती हैं, उनका स्वभाव अच्छा होता है और वह भावात्मक स्वास्थ्य का जीवन जीता है। जिसकी अन्तःस्रावी ग्रंथियां ठीक काम नहीं करतीं, उसका स्वभाव विकृत होता चला जाता है। उदाहरण के लिए छोटी-सी बात लें। जिसकी पैंक्रियाज ठीक काम नहीं करती, उसके शुगर की बीमारी हो जाती है। जिसे शूगर की बीमारी है, उसके स्वभाव में भी बहुत बदलाव आ जाएगा। उदासी, खिन्नता और चिड़चिड़ापन-ये सारे उसके स्वभाव बनने लग जाएंगे। व अन्तःस्रावी ग्रंथियों का संतुलित होना बहुत आवश्यक है। हम उसके प्रति जागरूक रहें । यद्यपि यह कार्य स्वतः होने वाला है, हमारे वश की बात नहीं है। फिर भी भाव के साथ उनका बहुत बड़ा संबंध है। यदि भाव पवित्र होगा तो अन्तःसावी ग्रंथियों का संतुलन बना रहेगा। भावनात्मक स्वास्थ्य में गड़बड़ी आएगी तो अन्तःस्रावी ग्रन्थियों में भी गड़बड़ी आ जाएगी। यह एक चक्र है- यदि अन्त-स्रावी ग्रंथियां ठीक काम रही हैं तो भाव भी ठीक काम कर रहे हैं, भावनात्मक स्वास्थ्य भी ठीक हो रहा है और यदि भावनात्मक स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो मानना चाहिए कि अन्तःस्रावी ग्रंथियां भी संतुलित नहीं हैं, स्वस्थ नहीं हैं। स्वभाव और अन्तर्द्वन्द्व निवृत्ति ___मूल प्रश्न है-हम अपने भावों के प्रति जागरूक रहें। इसमें एक बड़ा खतरा है और वह खतरा है मानसिक संघर्ष का। व्यक्ति के भीतर एक अन्तर्द्वन्द्व चलता है, मानसिक संघर्ष चलता है। वह संघर्ष का जीवन जीता है। व्यक्ति जानता है कि बहुत खाना अच्छा नहीं है, ज्यादा गरिष्ठ भोजन करना अच्छा नहीं है किन्तु इच्छा इतनी प्रबल होती है कि वह खाए बिना रह नहीं सकता। जब भी कोई प्रसंग आएगा वह खाये बिना नहीं रहेगा।खाने के बाद वह सोचता है-मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था । यह बुरा हुआ है। खाएगा भी और बुरा भी सोचेगा। कुछ लोगों में नशा करने की आदत हो जाती है। नशा करते हैं और साथ में यह भी जानते हैं कि यह बुरा है। ऐसा नहीं करना चाहिये। कुछ व्यक्तियों को अप्राकृतिक मैथुन की आदत हो जाती है। वे जानते हैं इससे सारी शक्तियां समाप्त होती हैं, पागलपन की स्थिति बन जाती है और एड्स तक की स्थिति बन जाती है। जानते हैं यह काम अच्छा नहीं है पर इच्छा प्रबल होने पर रहा ही नहीं जाता। फिर कहते हैं कि यह बुरा हुआ, ऐसा नहीं करना चाहिए था। यह है मानसिक संघर्ष । इसका नाम है अन्तर्द्वन्द्व । यानी अच्छा नहीं जानते हुए भी कार्य को करना। एक आदमी ऐसा है जो बुरा करता है किन्तु जानता नहीं है कि बुरा है, उसमें कम से कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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