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________________ ६. आत्मविद्या : क्षत्रियों को देन आत्मविद्या की परम्परा ब्रह्मविद्या या आत्मविद्या अवैदिक शब्द है। मुण्डकोपनिषद् के अनुसार सम्पूर्ण देवताओं में पहले ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। वह विश्व का कत्त और भुवन का पालक था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को समस्त विद्याओं की आधारभूत ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। अथर्वा ने अंगिर को अंगिर ने भारद्वाज सत्यवह को. भारद्वाज सत्यवह ने अपने से कनिष्ठ ऋषि को उसका उपदेश दिया। इस प्रकार गुरु-शिष्य के क्रम से वह विद्या अंगिर ऋषि को प्राप्त हुई। बृहदारण्यक में दो बार ब्रह्मविद्या की वंश-परम्परा बताई गई है।' उसके अनुसार पौतिमाष्य ने गौपवन से ब्रह्मविद्या प्राप्त की। गुरु-शिष्य क' क्रम चलते-चलते अन्त में बताया गया है कि परमेष्ठी ने वह विद्या ब्रह्म से प्राप्त की। ब्रह्मा स्वयंभू हैं। शंकराचार्य ने ब्रह्मा का अर्थ 'हिरण्यगर्भ किया है। उससे आगे आचार्य-परम्परा नहीं है, क्योंकि वह स्वयंभू है।' मुण्डक और बृहदारण्यक का क्रम एक नहीं है। मुण्डक के अनुसार ब्रह्मविद्या की प्राप्ति ब्रह्मा से अथर्वा को होती है और बृहदारण्यक के अनुसार वह ब्रह्मा से परमेष्ठी को प्राप्त होती है। ब्रह्मा स्वयंभू है । इस विषय में दोनों एक मत हैं। जैन दर्शन के अनुसार आत्मविद्या के प्रथम प्रवर्तक भगवान ऋषभ हैं। वे प्रथम राजा, प्रथम जिन (अर्हत्), प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्म-चक्रवर्ती थे। उनके 'प्रथम जिन' होने की बात इतनी विश्रुत १. मुण्डकोपनिषद्, १११, १२ । २. बृहदारण्यकोपनिषद्, २।६।१; ४।६।१-२ । ३. वही, भाष्य, २।३।६, पृ० ६१८ : परमेष्ठी विराट् ब्रह्मणो हिरण्यगर्भात् । ततः परं आचार्य परम्परा नास्ति । ४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २१६३ : उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणं पढमकेवली पढमतित्थकरे पढमधम्मवरचक्कवट्टी समुप्पज्जित्थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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