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________________ ७६ संस्कृति के दो प्रवाह ( = परम शान्ति ) के लिए, न ज्ञान प्राप्ति के लिए, न सम्बोधि के लिए और न निर्वाण के लिए था । वह केवल ब्रह्मलोक प्राप्ति के लिए था । पंचशिख ! मेरा यह ब्रह्मचर्य एकान्त ( बिलकुल ) निर्वेद के लिए, विराग, और निर्वाण के लिए है । "" सूत्रकृतांग में भगवान् महावीर को निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहा गया है ।' भगवान् महावीर के काल में अनेक निर्वाणवादी धारएं थीं, किंतु महावीर जिस धारा में थे, वह धारा बहुत प्राचीन और बहुत परिष्कृत थी । इसीलिए उन्हें निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहा गया । भगवान् बुद्ध ने निर्वाण का स्वरूप 'अस्त होना' या 'बुझ जाना' बतलाया - “भिक्षुओ ! यह जो रूप का निरोध है, उपशमन है, अस्त होना है, यही दुःख का निषेध है, रोगों का उपशमन है, जरा-मरण का अस्त होना है । यह जो वेदना का निरोध है, संज्ञा का निरोध है, उपशमन है, अस्त होना है, यही दुःख का निरोध है, रोगों का उपशमन है, जरा-मरण का अस्त होना है ।"" "यही शान्ति है, यही श्रेष्ठता है, यह जो सभी संस्कारों का शमन, सभी चित्त-मलों का त्याग, तृष्णा का क्षय, विराग-स्वरूप, निरोध स्वरूप निर्वाण है ।"" किन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि निर्वाण के पश्चात् आत्मा की क्या स्थिति होती है ? भगवान् महावीर ने निर्वाण की उत्तरकालीन स्थिति पर पूर्ण प्रकाश डाला । इसीलिये उन्हें निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहा जा सकता है । उत्तराध्ययन में छह बार 'निर्वाण' शब्द का प्रयोग हुआ है और अनेक बार 'मोक्ष' शब्द भी अन्यान्य अर्थों के साथ निर्वाण के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है । ' 14 मोक्ष का वर्णन छत्तीसवें अध्ययन में है ।' अनेक समाप्ति में सिद्धगति, निर्वाण या मोक्ष प्राप्त होने का १. दीघनिकाय, २६, पृ० १७६ । २. सूत्रकृतांग, १।६।२१ । ३. संयुक्तनिकाय, २१॥३ ॥ ४. अंगुत्तरनिकाय, ३१३२ । ५. देखिए - दसवेआलियं तह उत्तरज्झ यणाणि, शब्द सूची, पृ० २११, २६८ । ६. उत्तराध्ययन, ३६।४८-६७ | ७. वही, ११४८; ३।२० ; १०।३७ ; ११।३२; १४ । ५३; १६।१७; १८।५३; २१।२४; २४।२७; ३०।३७; ३१।२१; ३२।१११ ; ३५/२१; ३६।२६८ । Jain Education International अध्ययनों की परिउल्लेख है । कुछ For Private & Personal Use Only १२।४७ ; २५|४३; १३।३५; २६।५२; www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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