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________________ श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि यहां वह जरावस्था से सर्वथा मुक्त होते हैं (१०, २७" । तेजस्वी शरीर से युक्त होकर वह देवों के प्रियपात्र बन जाते हैं (१०, १४*. १६. ५६')। यहां वह पिता, माता और पुत्रों को देखते हैं (अथर्ववेद ६. १२०') और अपनी पत्नियों तथा सन्तान पुनः मिल जाते हैं (अथर्ववेद १२, ३")। यहां का जीवन अपूर्णताओं और शारीरिक कष्टों से सर्वथा मुक्त होता है (१०, १४'; अथर्ववेद ६, १२०), व्याधियां पीछे छूट जाती हैं और हाथपैर लूले या लंगड़े नहीं होते (अथर्ववेद ३, २८)। अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में अक्सर यह कहा गया है कि परलोक में मृत व्यक्ति शरीर तथा अन्य अवयवों की दृष्टि से सम्पूर्ण होता है। ___'ऋग्वेद में मृतकों के आनन्दप्रद जीवन को 'मदन्ति' अथवा 'मादयन्ते' जैसे सामान्य आशय के शब्दों से व्यक्त किया गया है (१०, १४. १५", इत्यादि) । स्वर्गलोक के आनन्दप्रद जीवन का सर्वाधिक विस्तृत विवरण ऋग्वेद (६,११३-१) में मिलता है। वहां चिरन्तन प्रकाश और तीव्रगति से प्रवाहित होने वाले ऐसे जल हैं, जिनकी गति निर्बाध होती है (तु० की० तैत्तिरीय ब्राह्मण ३,१२,२'); वहां पुष्टिकर भोजन और तृप्ति है; वहां आनन्द, सुख, आह्लाद और सभी कामनाओं की सन्तुष्टि है। यहां अनिश्चित रूप से वर्णित आनन्द की, बाद में प्रेम के रूप में व्याख्या की गई है (तैत्तिरीय ब्राह्मण २, ४,६; तु० की० शतपथ ब्राह्मण १०, ४ ४.) और अथर्ववेद (४.३४२) यह व्यक्त करता है कि स्वर्गलोक में लैंगिक मन्तुष्टि के प्रचुर साधन उपलब्ध हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार वहां पहुंचने वाले भाग्यशालियों को प्राप्त सुख पृथ्वी के श्रेष्ठतम व्यक्तियों की अपेक्षा सौ गुने अधिक हैं (१४, ७, १२२) । ऋग्वेद भी यह कहता है कि भाग्यशालियों के स्वर्ग में वीणा का स्वर और संगीत सुनाई पड़ता रहता है (१०,१३५'); वहां के लोगों के लिए सोम, घृत और मधु प्रवाहित होता रहता है (१०, १५४')। वहां घृत से भरे सरोवर तथा दुग्ध, मधु और मदिरा की नदियां बहती हैं (अथर्ववेद ४,३४,५-'; शतपथ ब्राह्मण ११, ५, ६) । वहां उज्ज्वल, विविधि रंगों वाली गायें हैं जो सभी कामनाओं को पूर्ण करती हैं (कामुदुधाः-अथर्ववेद ४/३४")। वहां न तो निर्धन हैं और न धनवान्, न शक्तिशाली हैं, न शोषित (अथर्ववेद ३,२६')।" ___'ऋग्वेद के रचयिताओं के विचार से यदि पुण्यात्मा लोग परलोक १. वैदिक माइथोलॉजी 'हिन्दी अनुवाद' पृ० ३१६-३२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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