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________________ ५८ संस्कृति के दो प्रह जो दूसरों का तिरस्कार करता है, वह चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है, इसीलिए मुनि मद न करे, किन्तु सम रहे। चक्रवर्ती भी दीक्षित होने पर पूर्व-दीक्षित अपने सेवक के सेवक को भी वंदना करने में संकोच न करे, किन्तु समता का आचरण करे। प्रज्ञा-सम्पन्न मुनि क्रोध आदि कषायों पर विजय प्राप्त करे और समता धर्म का निरूपण करे ।' इस प्रकार अनेक स्थलों में समण के साथ समता का सम्बन्ध जूडा हुआ है। बौद्ध साहित्य में समता को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । किन्तु समण शब्द उससे व्युत्पन्न है, ऐसा कोई स्थल हमें उपलब्ध नहीं हुआ। फिर भी श्रमण शब्द की जो व्याख्या है, उससे उसकी समभावपूर्ण स्थिति का ही बोध होता है। सभिय परिव्राजक के प्रश्न पर भगवान् बुद्ध ने कहा समितावि पहाय पुचपापं, विरजो अरवा इमं परं च लोकं । जातिमरणं उपातिवत्तो, समणो तादि पबच्चते तथता ॥' -जो पुण्य और पाप को दूर कर शान्त हो गया है, इस लोक और परलोक को जान कर रज-रहित हो गया है, जो जन्म और मरण के परे हो गया है, स्थिर, स्थितात्मा वह 'श्रमण' कहलाता है। समण का सम्बन्ध शम (उपशम) से भी है। जो छोटे-बड़े पापों का सर्वथा शमन करने वाला है, वह पाप के शमित होने के कारण श्रमण कहा जाता है। समता के आधार पर ही भिक्षु संघ में सब वर्गों के मनुष्य दीक्षित होते थे। भगवान् बुद्ध ने श्रमण की उत्पत्ति बतलाते हुए कहा था वाशिष्ठ ! एक समय था जब क्षत्रिय भी-'मैं श्रमण होऊंगा' (सोच) अपने धर्म को निंदते घर से बेघर हो प्रवजित हो जाता था। १. सूत्रकृतांग, १।२।२४ । २. वही, श२।२५। ३. वही, ११२।२८ । ४. सुत्तनिपात, ३२१११ । ५. धम्मपद, धम्मनग्ग १६ : यो च समेति पापानि, अणुं थूलानि सम्बसो। समितत्ता हि पापानं, वमणो ति पवुच्चति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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