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________________ संस्कृति के दो प्रवाह श्रमण संस्कृति के कर्मणा - जाति के सिद्धान्त ने वैदिक ऋषियों को भी प्रभावित किया और महाभारत एवं पुराण काल में कर्मणा - जाति के सिद्धान्त का प्रतिपादन होने लगा। महाभारत में ब्राह्मण के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं 'जो सदा अपने सर्वव्यापी रूप से स्थित होने के कारण अकेले ही सम्पूर्ण आकाश में परिपूर्ण-सा हो रहा है तथा जो असंग होने के कारण लोगों से भरे हुए स्थान को भी सूना समझता है, उसे ही देवता लोग ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) मानते हैं । ५६ 'जो सब प्रकार की आसक्तियों से छूट कर मुनि वृत्ति से रहता है; आकाश की भांति निर्लेप और स्थिर है, किसी भी वस्तु को अपनी नहीं मानता, एकाकी विचरता और शान्तभाव से रहता है, उसे देवता ब्रह्मवेत्ता मानते हैं ।' 'जिसका जीवन धर्म के लिए और धर्म भगवान् श्रीहरि के लिए होता है, जिसके दिन और रात धर्मपालन में ही व्यतीत होते हैं, उसे देवता ब्रह्मज्ञ मानते हैं ।' 'जो कामनाओं से रहित तथा सब प्रकार के आरंभों से रहित है, नमस्कार और स्तुति से दूर रहता तथा सब प्रकार के बंधनों से मुक्त होता है, उसे ही देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं ।" ब्रह्मपुराण के अनुसार शुद्र ब्राह्मण बन जाता है हो जाता है ।' वज्रसूचिकोपनिषद् एवं भविष्यपुराण में आलोचना मिलती है, किन्तु यह दृष्टिकोण वैदिक संस्कृति की आत्मा में परिपूर्ण रूप से व्याप्त नहीं हो सका । ७. समश्व की भावना व अहिंसा समत्व श्रमण परम्परा की एकता का मौलिक हेतु है । श्रमण शब्द बहुत प्रचलित रहा है, इसीलिए इस समताप्रधान संस्कृति को 'श्रमण संस्कृति' कहा जाता है । हमने भी स्थान-स्थान पर श्रमण शब्द का प्रयोग किया है । किन्तु वास्तविक दृष्टि से इसका नाम 'समण संस्कृति' है। 'समण' शब्द 'सम' शब्द से व्युत्पन्न है - 'सममणई तेण सो समणी' - जो सब जीवों को तुल्य मानता है, वह 'समण' है । 'जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं, उसी प्रकार सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है - इस समता की दृष्टि से जो किसी १. महाभारत, शान्तिपर्व, २४५।११-१४, २२-२४ ॥ २. ब्रह्मपुराण, २२३।३२ । और वैश्य क्षत्रिय भी जातिवाद की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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