SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृति के दो प्रवाह उपनिषद्कार ने कहा - 'यज्ञ के अट्ठारह ( सोलह ऋत्विक्, यजमान और पत्नी) साधन, जो ज्ञान रहित कर्म के आश्रय होते हैं, विनाशी और अस्थिर हैं । जो मूढ 'यही श्रेय है' इस प्रकार इनका अभिनन्दन करते हैं, वे बार- बार जरा-मरण को प्राप्त होते रहते हैं ।" इस विचारधारा के उपरान्त भी यज्ञ-संस्था निर्वीर्य नहीं हुई थी । भगवान् महावीर के काल में भी उसका प्रवाह चालू था । उत्तराध्ययन के चार अध्ययनों (६, १२, १४,२५) में उसकी चर्चा हुई है । भृगुपुत्रों ने जो कहा, वह लगभग वही है जो ऋषि कावषेय ने कहा था । भृगु ने कहा - 'पुत्रो ! पहले वेदों का अध्ययन करो, फिर आरण्यक मुनि हो जाना तब वे बोले-'पिता ! वेद पढ़ लेने पर भी वे त्राण नहीं होते ।" इस उत्तर के पीछे जो भावना है, उसका सम्बन्ध कामना और यज्ञ से है । वेद कामना पूर्ति और यज्ञों के प्रतिपादक हैं, इसीलिए वे त्राण नहीं हैं । इस अत्राणता का विशद वर्णन प्रजापति मनु और वृहस्पति के संवाद में मिलता है । मनु ने कहा- 'वेद में जो कर्मों के प्रयोग बताए गए हैं, वे प्राय: सकामभाव से युक्त हैं । जो इन कामनाओं से मुक्त होता है, वही परमात्मा को पा सकता है। नाना प्रकार के कर्म-मार्ग में सुख की इच्छा रख कर प्रवृत्त होने वाला मनुष्य परमात्मा को प्राप्त नहीं होता ।" । उत्तराध्ययन से यह भी पता चलता है कि उस समय निर्ग्रन्थ श्रमण यज्ञ के बाडों में भिक्षा के लिए जाते थे और यज्ञ की व्यर्थता और आत्मिकयज्ञ की सफलता का प्रतिपादन करते थे । ' ४६ महात्मा बुद्ध ने भी अल्प सामग्री के महान् यज्ञ का प्रतिपादन किया था और वे भिक्षु संघ के साथ भोजन के लिए यज्ञ-मण्डल में भी गए थे । कूटदंत ब्राह्मण के प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने पांच महाफलदायी यज्ञों का उल्लेख किया था - १. दानयज्ञ, २. त्रिशरणयज्ञ, ३. शिक्षापदयज्ञ, ४. शीलयज्ञ और ५. समाधियज्ञ । ' १२ सांख्य दर्शन को अवैदिक परम्परा या श्रमण परम्परा की श्रेणी में मानने का यह एक बहुत बड़ा आधार है कि वह यज्ञ का प्रतिरोधी था । यज्ञ का प्रतिरोधक वैदिकमार्ग नहीं हो सकता । अतः उपनिषद् की धारा में जो यज्ञ-प्रतिरोध हुआ, उसे अवैदिक परम्परा के विचारों की परिणति १. मुण्डकोपनिषद्, १२७ । २. उत्तराध्ययन, १४।६ | ३. वही, १४।१२ । Jain Education International ४. महाभारत, शान्तिपर्व २०१।१२ । ५. उत्तराध्ययन, १२।३८-४४; २५।५-१६ । ६. दीघनिकाय, ११५, पृ० ५३-५५ । www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy