SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उनके हेतु ३६ इस स्थिति में यह मान लेना कोई कठिन बात नहीं कि संन्यास और व्रतों की व्यवस्था के लिए श्रमण धर्म वैदिक धर्म का ऋणी नहीं है । 1 वेद, ब्राह्मण और आरण्यक साहित्य में महाव्रतों का उल्लेख नहीं है । जिन उपनिषदों, पुराणों और स्मृतियों में उनका उल्लेख है, वे सभी ग्रन्थ भगवान् पार्श्व के उत्तरकालीन हैं । अतः पूर्वकालीन व्रत - व्यवस्था को उत्तरवर्ती व्रत-व्यवस्था ने प्रभावित किया - यह मानना स्वाभाविक नहीं है । भगवान् महावीर भगवान् पार्श्व के उत्तरवर्ती तीर्थंकर हैं । उन्होंने भगवान् पार्श्व के व्रतों का ही विकास किया था । उन्होंने इस विषय में किसी अन्य परम्परा का अनुसरण नहीं किया । उनके उत्तरकाल में महाव्रत इतने व्यापक हो गए कि उनका मूल स्रोत ढूंढना एक पहेली बन गया । इस दिशा में कभी-कभी प्रयत्न हुआ है। उनके अभिमत इस प्रकार हैंपार्श्वनाथ का धर्म महावीर के पंच महाव्रतों में परिणत हुआ है । वही धर्म बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग में और योग के यम-नियमों में प्रकट हुआ। गांधीजी के आश्रम धर्म में भी प्रधानतया चातुर्याम धर्म दृष्टिगोचर होता है ।' हिन्दुत्व और जैन धर्म आपस में घुलमिलकर अब इतने एकाकार हो गए हैं कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - ये जैन धर्म के उपदेश थे, हिम्दुत्व के नहीं ।" ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महावत भगवान् पार्श्व के चातुर्याम धर्म में ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे शब्दों की व्यवस्था नहीं थी । उनकी व्यवस्था में बाह्य वस्तुओं की अनासत्ति का सूचक शब्द था 'बहिस्तात् - आदान- विरमण' । भगवान् महावीर ने इ‍ व्यवस्था में परिवर्तन किया और 'बहिस्तात् आदान -विरमण' को 'ब्रह्मचर्य और 'अपरिग्रह' इन दों शब्दों में विभक्त कर डाला । ब्रह्मचर्य शब्द वैदिव साहित्य में प्रचलित था । किन्तु भगवान् महावीर ने एक महाव्रत के रूप ब्रह्मचर्य का प्रयोग किया। उस रूप में वह वैदिक साहित्य में प्रयुक्त नह था। अपरिग्रह शब्द का भी महाव्रत के रूप में सर्व प्रथम भगवान् महावी ने ही प्रयोग किया था । जाबालोपनिषद् ( ५ ), नारदपरिव्राजकोपनिष ( ३.८.६ ), तेजोबिन्दूपनिषद् (१.३), याज्यवल्क्योपनिषद् (२.१) आरुणिकोपनिषद् ( ३ ), गीता ( ६.१०), योगसूत्र ( २.३० ) में अपरिग्रह १. पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, भूमिका पृ० ६ । २. संस्कृति के चार अध्याय, पृ० १२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy