SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृति के दो प्रवाह २८ का मुख क्या है ? विजयघोष ने उत्तर दिया- धर्म का मुख काश्यप ऋषभ हैं ।' श्रीमद्भागवत के अनुसार वे श्रमणों का धर्म प्रकट करने के लिए अवतरित हुए ।' उन्होंने राजा नमि की पुत्री सुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया । इस अवतार ने समस्त आसक्तियों से रहित रहकर अपनी इंद्रियों और मन को अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूप में स्थिर होकर समदर्शी के रूप में जड़ों की भांति योगचर्या का आचरण किया । इस स्थिति को महर्षि लोग परमहंस पद कहते हैं । निरन्तर विषय-भोगों की अभिलाषा के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होने वाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार है ।" ब्रह्माण्डपुराण के अनुसार महादेव ऋषभ ने दस प्रकार के धर्म का स्वयं आचरण किया और केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर भगवान् ने जो महर्षि परमेष्ठी, वीतराग, स्नातक, निर्ग्रन्थ, नैष्ठिक थे- उन्हें उसका उपदेश दिया । जैन साहित्य में तो यह स्पष्ट है ही कि श्रमण धर्म के आदि-प्रवर्तक भगवान् ऋषभ थे ।" इस प्रकार जैन और वैदिक- दोनों प्रकार के साहित्य से यह प्रमाणित होता है कि श्रमण धर्म का आदि स्रोत भगवान् ऋषभ हैं । १. उत्तराध्ययन, २५।१४,१६ । २. श्रीमद्भागवत, ५।३।२० : धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्व मन्थिनां शुक्लया तनुवावततार | ३. वही, २१७११० : नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुर्योवचचार समदृग् जडयोगचर्याम् । यत् पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः ॥ ४. वही, ५।६।१६ : नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुप्तबुद्ध: । लोकस्य यः करुणयाभयमात्मलोकमाख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ॥ ५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २१६३, पत्र १३५ : उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे पढमकेवली पढमतित्थकरे पढमधम्मवरचक्कवट्टी समुपज्जत्थे | www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy