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________________ श्रमण संस्कृति का प्राग्-ऐतिहासिक अस्तित्व का प्रारम्भ से ही विरोध हुआ। यदि वह न होती तो उसका विरोध कैसे होता? __आचार्य क्षितिमोहन सेन के अनुसार तीर्थ, पूजा, भक्ति, नदी की पवित्रता, तुलसी, अश्वत्थ आदि वृक्षों से सम्बन्धित देव और सिन्दूर आदि उपकरण-ये सब वेद-बाह्य वस्तुएं हैं । आर्यों ने इन्हें आर्य-पूर्व जातियों से ग्रहण किया था।' श्रमण परम्परा में धर्मसंघ के लिए 'तीर्थ' शब्द का प्रयोग होता था और उसके प्रवर्तक तीर्थङ्कर कहलाते थे। दीघनिकाय में पूरणकश्यप, मश्करी गोशाल, अजितकेशकम्बल, पकुद्धकात्यायन, संजयवेलट्ठीपुत्र और निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र-इन छहों को तीर्थङ्कर कहा है।' नाग-पूजा भगवान् ऋषभ के पुत्र भरत के समय में प्रचलित हई थी। भक्ति का मूल उद्गम द्रविड़ प्रदेश है, अतः वह भी आर्य-पूर्व हो सकती है। गंगा-यमुना आदि नदियों का वेदों में उल्लेख नहीं है और ब्राह्मण ग्रंथों में वे बहुत पवित्र और देवता रूप मानी गई हैं । जैन-सूत्रों में भवनवासी देवों के दस चैत्यवृक्ष बतलाए गए है'असुरकुमार अश्वत्थ नागकुमार सप्तपर्ण-सात पत्तों वाला पलाश सुपर्णकुमार शाल्मली-सेमल विद्युत्कुमार उदुम्बर अग्निकुमार सिरीस दीपकुमार दधिपर्ण उदधिकुमार -- वंजुल-अशोक दिशाकुमार पलाश-तीन पत्तों वाला पलाश वायुकुमार वप्र स्तनितकुमार- कर्णिकार--कणेर १. भारतवर्ष में जाति-भेद, पृ० ७५-७७ । २. भगवती, २०७४ : अरहा ताव नियमं तित्थकरे, तित्यं पुण चाउवण्णे समणसंघ । ३. दीघनिकाय (सामञफलसुत्त), प्रथम भाग, पृ० ५६-६७ । ४. आवश्यकनियुक्ति, गाथा २१८ । ५. पद्मपुराण, उत्तरखंड, ५०१५१ : उत्पन्ना द्राविडे चाहम् । ६. स्थानांग, १०८१-८२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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