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________________ बाह्य जगत् और हम २४६ एकाग्रता से चित्त का निरोध होता है।' वचन-गुप्ति से निर्विचार दशा प्राप्त होती है। वाक दो प्रकार का होता है-(१) अन्तर्जल्पाकार और (२) बहिर्जल्पाकार । मानसिक विचारों की अभिव्यक्ति बहिर्जल्पाकार वाक् से होती है और मानसिक चिन्तन अन्तर्जल्पाकार वाक् के आलम्बन से होता है । अतएव जब तक वचन-गुप्ति नहीं होती अर्थात अन्तर्जल्पाकार वाक का निरोध नहीं होता, तब तक निर्विचार दशा-मानसिक चिन्तन से मुक्त दशा या ध्यान की स्थिति प्राप्त नहीं होती । काय-गुप्ति से संवर या पापाश्रवों का निरोध होता है।' वैदिक और बौद्ध दर्शन में मन को बन्ध और मोक्ष का हेतु माना गया । जैन दर्शन उस सिद्धान्त से सर्वथा असहमति प्रकट नहीं करता तो सर्वथा सहमति भी नहीं देता। मन की चंचलता और स्थिरता का शरीर की प्रवृत्ति और अप्रवृत्ति से निकट का सम्बन्ध है। शरीर को स्थिर किए बिना श्वास को स्थिर नहीं किया जा सकता और श्वास को स्थिर किए बिना मन को स्थिर नहीं किया जा सकता। विजातीय तत्त्व का ग्रहण भी शरीर के ही द्वारा होता है, इसलिए बन्ध और मोक्ष की प्रक्रिया में मन की शरीर की स्थिरता का बहुत महत्त्वपूर्ण योग शब्द पुद्गल द्रव्य का कार्य है। स्पर्श, रस, गंध और रूप पुद्गल द्रव्य के गुण हैं । दृश्य-जगत् समूचा पौदगलिक है। वह मनोज्ञ भी है और अमनोज्ञ भी है। मनोज्ञ के प्रति राग और अमनोज्ञ के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है, तब आत्मा पुद्गलाभिमुख बन जाती है और पुद्गलाभिमुख आत्मा ही पुद्गलों से बद्ध होती है। श्रोत्रेन्द्रिय का निग्रह करने से मनोज्ञ शब्दों के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होता। चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन इन्द्रिय का निग्रह करने से मनोज्ञ रूप, गंध, रस और स्पर्श के प्रति राग तथा अमनोज्ञ रूप, गंध, रस और स्पर्श के प्रति द्वेष उत्पन्न नहीं होता। आत्मा पुद्गल-विमुख बन जाती है और पुद्गल-विमुख आत्मा ही पुद्गलों से विमुक्त होती है। बाह्य जगत् से हमारा जो पौद्गलिक सम्बन्ध है, वही हमारा बन्धन है और पौद्गलिक सम्बन्ध का जो विच्छेद है, वही हमारी मुक्ति है।' १. उत्तराध्ययन, २६।२५ । २. वही, २६॥५४॥ ३. वही, २९५५ । ४. वही, २६६२-६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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