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________________ संस्कृति के दो प्रवाह पुराणकार ने इस कथानक में अर्हत् के धर्म की न्यूनता दिखलाने का यत्न किया है, फिर भी इस रूपक में से जैन-धर्म की प्राचीनता, उसके अहिंसा और अनेकान्तवादी सिद्धान्त और असुरों की जैन धर्म-परायणताफलित निकल आते हैं । १८. विष्णुपुराण में असुरों को वैदिक रंग में रंगने का प्रयत्न किया गया है, किन्तु ऋग्वेद द्वारा यह स्वीकृत नहीं है । वहां उन्हें वैदिक आर्यों का शत्रु कहा गया है ।" असुर और वैदिक आर्य वेदों और पुराणों में वर्णित देव-दानव युद्ध वैदिक आर्यों और आर्यपूर्व जातियों के प्रतीक का युद्ध है । वैदिक आर्यों के आगमन के साथ-साथ असुरों से उनका युद्ध छिड़ा और वह ३०० वर्षों तक चलता रहा ।' आर्यों का इन्द्र पहले बहुत शक्तिशाली नहीं था । इसलिए प्रारम्भ में आर्य लोग पराजित हुए । भारतवर्ष में असुर राजाओं की एक लम्बी परम्परा रही है ।' वे सभी व्रत-परायण, बहुश्रुत और लोकेश्वर थे । असुर प्रथम आक्रमण में ही वैदिक आर्यों से पराजित नहीं हुए थे। जब तक वे सदाचार-परायण और संगठित थे तब तक आर्य लोग उन्हें पराजित नहीं सके । किन्तु जब असुरों के आचरण में शिथिलता आई तब आर्यों ने उन्हें परास्त कर डाला । इस तथ्य का चित्रण इन्द्र और लक्ष्मी के संवाद में हुआ है । इन्द्र के पूछने पर लक्ष्मी ने कहा - 'सत्य और धर्म से बंध कर पहले मैं असुरों के यहां रहती थी, अब उन्हें धर्म के विपरीत देख कर मैंने तुम्हारे यहां रहना पसन्द किया है । मैं उत्तम गुणों वाले दानवों के पास सृष्टि- काल से लेकर अब १. ऋग्वेद १।२३।१७४।२-३ | २. मत्स्यपुराण, २४।३७ : अथ देवासुरं युद्धमभूद् वर्षशतत्रयम् । ३. महाभारत, शान्तिपर्व, २२७।२२ । अशक्तः पूर्वमासीस्त्वं कथंचिच्छक्ततां गतः । कस्त्वदन्य इमां वाचं, सुक्रूरां वक्तुमर्हति ॥ ४. विष्णुपुराण, ३११७६ : देवासुरमभूद् युद्ध ं दिव्यमब्दशतं पुरा । तस्मिन् पराजिता देवा, दैत्यं ह्रदिपुरोगमैः ॥ ५. महाभारत, शान्तिपर्व, २२७।४६ - ५४ । ६. वही, २२७१५६-६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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