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________________ साधना-पद्धति (२) दर्शन की साधना के आठ अंग हैं१. निःशंकित। ५. उपबंहण । २. निष्कांक्षित। ६. स्थिरीकरण । ३. निर्विचिकित्सा। ७. वात्सल्य । ४. अमूढदृष्टि । ८. प्रभावना। दर्शन जैन-संघ के संगठन का मूल आधार रहा है। पहला आधार है-निःशंकित-आस्था या अभय । एकसूत्रता का मूल बीज आस्था है। स्वसम्मत लक्ष्य के प्रति आस्थावान हुए बिना कोई भी प्रगति नहीं कर सकता। लक्ष्य के साथ तादात्म्य हो, यह संगठन की पहली अपेक्षा है। अभय भी ऐसी ही अनिवार्य अपेक्षा है। मन में भय हो तो लक्ष्य को पकड़ा ही नहीं जा सकता और पूर्व गृहीत हो तो उस पर टिका नहीं जा सकता। भगवान् महावीर की दृष्टि में सब दोषों का मूल है हिंसा और हिंसा का मूल है भय। कोई व्यक्ति अभय होकर ही अपने लक्ष्य की ओर स्वतंत्र गति से चल सकता है। ___संगठन का दूसरा आधार है-निष्कांक्षित-लक्ष्य के प्रति दृढ़ अनुराग या वैचारिक स्थिरता । जगत् में अनेक संगठन और उनके भिन्न-भिन्न लक्ष्य होते हैं। स्व-सम्मत लक्ष्य के प्रति दढ़ अनुराग न हो तो मन कभी किसी को पकड़ना चाहता है और कभी किसी को। विचारों में एक अंधड़सा चलता रहता है। इस प्रकार व्यक्ति और संगठन दोनों ही स्वस्थ नहीं बन सकते। तीसरा आधार है-निविचिकित्सा--स्वीकृत साधनों की सफलता में विश्वास । हर संगठन का अपना साध्य होता है और अपने साधन होते हैं। किसी भी साधन से तब तक साध्य नहीं सधता, जब तक साधक को उसकी सफलता में विश्वास न हो। इस साधन से अमक साधना की सिद्धि निश्चित होगी-ऐसा माने बिना संगठन का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। ___ संगठन का चौथा आधार-स्तम्भ है-अमूढ़दृष्टि । दूसरे विचारों के प्रति हमारी सद्भावना हो, यह सही है पर यह सही नहीं कि अपनी नीति से विरोधी विचारों के प्रति हमारी सहमति हो। यदि ऐसा हो तो हमारा दृष्टिकोण विशुद्ध नहीं रह सकता और हमारे संगठन और कार्य-प्रणाली का कोई स्वतन्त्र रूप भी नहीं रह सकता। संगठन के लिए यह बहुत अपेक्षित है कि उसका अनुयायी विनम्र हो पर 'सब समान हैं' इस अविवेक का समर्थक न हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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