SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ संस्कृति के दो प्रवाह (३) रात्रिभोजन-विरमण भगवान पार्श्व के शासन में रात्रिभोजन न करना व्रत नहीं था। भगवान् महावीर ने उसे व्रत की सूची में सम्मलित कर लिया। यहां सूत्रकृतांग (१।६।२८) का वह पद फिर स्मरणीय है-'से वारिया इत्थि सराइभत्त' । हरिभद्रसरि ने इसकी चर्चा करते हए बताया है कि भगवान ऋषभ और भगवान् महावीर ने अपने ऋजु-जड़ और वक्र-जड़ शिष्यों की अपेक्षा से रात्रिभोजन न करने को व्रत का रूप दिया और उसे मूल गुणों की सूची में रखा। मध्यवर्ती २२ तीर्थंकरों ने उसे मूलगुण नहीं माना, इसलिए उन्होंने उसे व्रत का रूप नहीं दिया। सोमतिलक सूरि का भी यही अभिमत है। हरिभद्रसूरि से पहले भी यह मान्यता प्रचलित थी। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने लिखा है कि 'रात को भोजन न करना' अहिंसा महाव्रत का संरक्षक होने के कारण समिति की भांति उत्तर गुण है। किन्तु मुनि के लिए वह अहिंसा महाव्रत की तरह पालनीय है । इस दृष्टि से वह मूलगुण की कोटि में रखने योग्य है । श्रावक के लिए वह मूलगुण नहीं है। जो गुण साधना के आधारभूत होते हैं, उन्हें 'मौलिक' या 'मूलगुण' कहा जाता है। उनके उपकारी या सहयोगी गुणों को 'उत्तरगुण' कहा जाता है। जिनभद्रगणी ने मूलगुण की संख्या पांच और छह-दोनों प्रकार से मानी है-- १. अहिंसा ४. ब्रह्मचर्य २. सत्य ५. अपरिग्रह ३. अचौर्य ६. रात्रिभोजन-विरमण ।' १. दशवकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र १५० : एतच्च रात्रिभोजनं प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थयोः ऋजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थं महाव्रतोपरि पठितं, मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति । २. सप्ततिशतस्थान, गाथा २८७ : मूलगुणेसु उ दुण्हं, सेसाणुत्तरगुणेसु निसिभुत्तं । ३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १२४७ वृत्ति : उत्तरगुणत्वे सत्यपि तत् साधोर्मूलगुणो भव्यते । मूलगुणपालनात् प्राणातिपातादिविरमणवत् अन्तरङ्गत्वाच्च । ४. वही, गाथा १२४५-१२५० । ५. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १२४४ : सम्मत्त समेयाई, महव्वयाणुव्वयाइ मूलगुणा। ६. वही, गाथा १८२६ : मूलगुणा छव्वयाई तु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy