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________________ १७६ संस्कृति के दो प्रवाह ब्रह्मचर्य की विशेष व्याख्या, व्यवस्था या योजना की थी। ____ अब्रह्मचर्य को फोड़े की पीव निकालने आदि के समान बताया जाता था, उसके लिए भगवान् ने कहा-'कोई मनुष्य तलवार से किसी का सिर काट शान्ति का अनुभव करे तो क्या वह दोषी नहीं है ?' ___ 'कोई मनुष्य चुपचाप शांत-भाव से जहर की चूंट पीकर बैठ जाए तो क्या वह विष व्याप्त नहीं होता? ___'कोई मनुष्य किसी धनी के खजाने से अनासक्त-भाव से बहुमूल्य रत्नों को चुराए, तो क्या वह दोषी नहीं होता?" __दूसरे का सिर काटने वाला, जहर की चूंट पीने वाला और दूसरों के रत्न चुराने वाला वस्तुतः शांत या अनासक्त नहीं होता, वैसे ही अब्रह्मचर्य का सेवन करने वाला शांत या अनासक्त नहीं हो सकता। जो पार्श्वस्थ श्रमण अनासक्ति का नाम ले अब्रह्मचर्य का समर्थन करते हैं, वे काम-भोगों में अत्यन्त आसक्त हैं। __ अब्रह्मचर्य को स्वाभाविक मानने की ओर श्रमणों का मानसिक झुकाव होता जा रहा था, उस समय उन्हें ब्रह्मचर्य की विशेष व्यवस्था देने की आवश्यकता थी। इस अनुकल परीषह से श्रमणों को बचाना आवश्यक था। उस स्थिति में भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य को बहुत महत्त्व दिया और उसकी सुरक्षा के लिए विशेष व्यवस्था दी (देखिए-उत्तराध्ययन, सोलहवां और बत्तीसवां अध्ययन)। (२) सामायिक और छेवोपस्थापनीय भगवान् पार्श्व के समय सामायिक चारित्र था और भगवान् महावीर ने छेदोपस्थापनीय चारित्र का प्रवर्तन किया । वास्तविक दृष्टि से चारित्र एक सामायिक ही है।' चारित्र का अर्थ है 'समता की आराधना' । विषमतापूर्ण प्रवृत्तियां व्यक्त होती हैं तब सामायिक चारित्र प्राप्त होता है। यह निविशेषण या निविभाग है । भगवान् पार्श्व ने चारित्र के विभाग नहीं किए, उसे विस्तार से नहीं समझाया। संभव है उन्हें इसकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। भगवान महावीर के सामने एक विशेष प्रयोजन उपस्थित था, इसलिए उन्होंने सामायिक को छेदोपस्थापनीय का रूप दिया। इस चारित्र को स्वीकार करने वाले को व्यक्ति या विभागशः महाव्रतों का १. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा ५३-५५ । २. सूत्रकृतांग, ११३१७३ । ३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १२६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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