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________________ १६८ संस्कृति के दो प्रवाह श्रावकों के जीवन-व्यवहार से सर्वथा सम्बन्धित नहीं थे, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। संभव है कि भूमिका भेद का गहरा विचार किए बिना साधुओं द्वारा भी श्रावकों के जटिल दैनिक जीवन का क्रम निश्चित किया गया हो । इस लम्बे विवेचन के बाद हम पुन: उसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन धर्म के ह्रास और उसके वैश्य वर्ग में सीमित होने के हेतु मुख्य रूप में वे ही हैं, जो हमने पहले प्रस्तुत किए थे। सूत्ररूप में उनकी पुनरावृत्ति कुछ तथ्यों को और सम्मिलित कर इस प्रकार की जा सकती है— १. उन्नति और अवनति का ऐतिहासिक क्रम । २. दीर्घकालीन समृद्धि से आने वाली शिथिलता । ३. जैन संघ का अनेक गच्छों व सम्प्रदायों में विभक्त हो जाना । ४. परस्पर एक दूसरे को पराजित करने का प्रयत्न । ५. अपने प्रभाव क्षेत्रों में दूसरों को न आने देना या जो आगत हों, उन्हें वहां से निकाल देना । ६. साधुओं का रूढ़िवादी होना । ७. देश-काल के अनुसार परिवर्तन न करना, नए आकर्षण उत्पन्न न करना । दैनिक जीवन में क्रियाकाण्डों की जटिलता कर देना । ८. ६. संघ - शक्ति का सही मूल्यांकन न होना । १०. सामुदायिक चिन्तन और प्रचार- कौशल की अल्पता । ११. विदेशी आक्रमण । १२. अन्यान्य प्रतिस्पर्धी धर्मों के प्रहार । १३. जातिवाद का स्वीकरण । इन स्थितियों ने जैन धर्म को सीमित बनाया । कुछ जैन आचार्यो ने दूरदर्शितापूर्ण प्रयत्न किए और ओसवाल, पोरवाल, खण्डेलवाल आदि आदि कई जैन जातियों का निर्माण किया । उससे जैन धर्म मुख्यतः वैश्यवर्ग में सीमित हो गया, किन्तु वह बौद्ध धर्म की भांति भारत से उच्छिन्न नहीं हुआ । आचार्य भद्रबाहु ने अपने विशाल ज्ञान तथा वर्तमान की स्थितियों का भविष्य में प्रतिबिम्ब देख कर ही यह कहा था- "धर्मं मुख्यतः वैश्य - वर्ग के हाथ में होगा ।' चन्द्रगुप्त के सातवें स्वप्न - 'अकुरडी पर कमल उगा हुआ है' का अर्थ उन्होंने किया था - "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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