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________________ जैन धर्म : हिन्दुस्तान के विविध अंचलों में सार्वजनिक प्रसार की सम्यक् जानकारी मिलती है । शांतिनिकेतन के उपकुलपति आचार्य क्षितिमोहनसेन ने 'बंगाल और जैन धर्म' शीर्षक लेख में लिखा है- "भारतवर्ष के उत्तर-पूर्वं प्रदेशों अर्थात् अंग, बंग, कलिंग, मगध, काकट (मिथिला) आदि में वैदिक धर्म का प्रभाव कम तथा तीर्थिक प्रभाव अधिक था । फलतः श्रुति, स्मृति आदि शास्त्रों में यह प्रदेश निंदा के पात्र के रूप में उल्लिखित था । इसी प्रकार उस प्रदेश में तीर्थयात्रा करने से प्रायश्चित्त करना पड़ता था । श्रुति और स्मृति के शासन से बाहर पड़ जाने के कारण इस पूर्वी अंचल में प्रेम, मैत्री और स्वाधीन चिन्ता के लिए बहुत अवकाश प्राप्त हो गया था। इसी देश में महावीर, बुद्ध, आजीवक धर्मगुरु इत्यादि अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया और इसी प्रदेश में जैन, बौद्ध प्रभृति अनेक महान् धर्मों का उदय तथा विकास हुआ। जैन और बौद्ध धर्म यद्यपि मगध में ही उत्पन्न हुए तथापि इनका प्रचार और विलक्षण प्रसार बंगदेश में ही हुआ । इस दृष्टि से बंगाल और मगध एक ही स्थल पर अभिषिक्त माने जा सकते " बंगाल में कभी बौद्ध धर्म की बाढ़ आई थी, किन्तु उससे पूर्व यहां जैन धर्म का ही विशेष प्रसार था । हमारे प्राचीन धर्म के जो निदर्शन हमें मिलते हैं, वे सभी जैन हैं । इसके बाद आया बौद्ध-युग । वैदिक धर्म के पुनरुत्थान की लहरें भी यहां आकर टकराईं, किंतु इस मतवाद में भी कट्टर कुमारिलभट्ट को स्थान नहीं मिला। इस प्रदेश में वैदिकमत के अन्तर्गत प्रभाकर को ही प्रधानता मिली और प्रभाकर थे स्वाधीन विचारधारा के पोषक तथा समर्थक | जैनों के तीर्थङ्करों के पश्चात् चार श्रुतकेवली आए । इनमें चौथे श्रुतकेवली थे भद्रबाहु । .... ये भद्रबाहु चन्द्रगुप्त के गुरु थे । उनके समय में एक बार बारह वर्ष व्यापी अकाल की सम्भावना दिखाई दी थी । उस समय वे एक बड़े संघ के साथ बंगाल को छोड़ कर दक्षिण चले गए और फिर वहीं रह गए । वहीं उन्होंने देह त्यागी । दक्षिण का यह प्रसिद्ध जैन महातीर्थ 'श्रवणबेलगोला' के नाम से प्रसिद्ध है । दुर्भिक्ष के समय इतने बड़े संघ को लेकर देश में रहने से गृहस्थों पर बहुत बड़ा भार पड़ेगा, इसी विचार से भद्रबाहु ने देश-परित्याग किया था । १५३ “भद्रबाहु की जन्मभूमि थी बंगाल । यह कोई मनगढन्त कल्पना नहीं है । हरिसेन कृत बृहत्कथा में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है । रत्ननन्दी गुजरात के निवासी थे, उन्होंने भी भद्रबाहु के सम्बन्ध में यही लिखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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