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________________ १४६ संस्कृति के दो प्रवाह हुआ था । ' अरबस्तान के दक्षिण में 'एडन' बंदर वाले प्रदेश को 'आर्द्रदेश' कहा जाता था । कुछ विद्वान् इटली के एड्रियाटिक समुद्र के किनारे वाले प्रदेश को आर्द्र - देश मानते हैं । " बेलोनिया में जैन धर्म का प्रचार बौद्ध धर्म का प्रसार होने से पहले ही हो चुका था । इसकी सूचना बावेरु - जातक से मिलती है । इब्न- अनन- जीम के अनुसार अरबों के शासन काल में यहिया इब्न खालिद बरमकी ने खलीफा के दरबार और भारत के साथ अत्यन्त गहरा सम्बन्ध स्थापित किया । उसने बड़े अध्यवसाय और आदर के साथ भारत के हिन्दू, बौद्ध और जैन विद्वानों को निमंत्रित किया ।" इस प्रकार मध्य एशिया में जैन धर्म या श्रमण संस्कृति का काफी प्रभाव रहा था । उससे वहां के धर्म प्रभावित हुए थे । वानक्रेमर के अनुसार मध्य-पूर्व में प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रंश है ।" श्री विश्वम्भरनाथ पाण्डे ने लिखा है - "इन साधुओं के त्याग का प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियों पर विशेष रूप से पड़ा । इन आदर्शों का पालन करने वालों की, यहूदियों में, एक खास जमात बन गई, जो 'ऐस्सिनी' कहलाती थी । इन लोगों ने यहूदी धर्म के कर्मकाण्डों का पालन त्याग दिया । ये बस्ती से दूर जंगलों में या पहाड़ों पर कुटी बना कर रहते थे। जैन मुनियों की तरह अहिंसा को अपना खास धर्म मानते थे । मांस खाने से उन्हें बेहद परहेज था । वे कठोर और संयमी जीवन व्यतीत करते थे । पैसा या धन को छूने तक से इन्कार करते थे। रोगियों और दुर्बलों की सहायता को दिनचर्या का आवश्यक अङ्ग मानते थे । प्रेम और सेवा को पूजापाठ से बढ़ कर मानते थे। पशुबलि का तीव्र विरोध करते थे । शारीरिक परिश्रम से ही जीवन-यापन करते थे । अपरिग्रह के सिद्धान्त पर विश्वास करते थे । समस्त सम्पत्ति को समाज की सम्पत्ति समझते थे । मिस्र में इन्हीं तपस्वियों को 'थेरापूते' कहा जाता था । 'थेरापूते' का अर्थ 'मौनी अपरिग्रही' है ।" १. सूत्रकृतांग, २६ । २. प्राचीन भारतवर्ष, प्रथम भाग, पृ० २६५ । ३. वही, प्रथम भाग, पृ० २६५ । ४. बावेरु जातक, ( सं ३३९), जातक खण्ड ३, पृ० २८६-२६१ । ५. हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रंथ, पृ० ३७५ । ६. वही, पृ० ३७४ । ७. हुकमचन्द अभिनन्दन ग्रंथ, पृ० ३७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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