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________________ कर्मवाद और लेश्या १३३ गुद्धि, नील' ईर्ष्या, कदाग्रह, अतपस्विता, अविद्या, माया, निर्लज्जता, प्रद्वेष, शठता, प्रमाद, रसलोलुपता, सुख की गवेषणा, हिंसा में रत रहना, प्रकृति की क्षुद्रता और बिना विचारे काम करना । कापोत-वाणी की वक्रता, आचरण की वक्रता, कपट, अपने दोषों को छुपाना, मिथ्यादृष्टि, मखोल करना, दुष्ट वचन बोलना, चोरी करना और मात्सर्य । ➖➖➖➖ तेजस्' नम्र व्यवहार करना, अचपल होना, ऋजुता, कुतूहल न करना, विनय में निपुण होना, जितेन्द्रियता, मानसिक समाधि, तपस्विता, धार्मिक प्रेम, धार्मिक दृढ़ता, पापभीरुता और मुक्ति की गवेषणा । पद्म - क्रोध, मान, माया और लोभ की अल्पता, चित्त की प्रशान्ति, आत्म-नियंत्रण, समाधि, अल्पभाषिता और जितेन्द्रियता । शुक्ल -- धर्म और शुक्लध्यान की लीनता, चित्त की प्रशान्ति, आत्मनियंत्रण, सम्यक् प्रवृत्ति, मन, वचन और काया का संयम तथा जितेन्द्रियता । इस प्रसंग में गोम्मटसार जीवकाण्ड ( गाथा ५०८ - ५१६) द्रष्टव्य है । लेश्याओं के लक्षणों के साथ सत्त्व, रजस् और तमस् के लक्षणों की आंशिक तुलना होती है । शौच, आस्तिक्य, शुक्ल-धर्म की रुचि वाली बुद्धिये सत्त्वगुण के लक्षण हैं; बहुत बोलना, मान, क्रोध, दम्भ और मात्सर्यये रजोगुण के लक्षण हैं और भय, अज्ञान, निद्रा, आलस्य और विषाद - ये तमोगुण के लक्षण हैं । १. उत्तराध्ययन, ३४।२३-२४ २. वही, ३४१२५-२६॥ ३. वही, ३४।२७-२८ । ४. वही, ३४।२६-३० । ५. वही, ३४।३२ । ६. अष्टांगहृदय, शरीरस्थान, ३।३७,३८ : सात्विकं शौचमास्तिक्यं शुक्लधर्म रुचिर्मतिः । राजसं बहुभाषित्वं मानक्रुद्दम्भमत्सरम् ॥ तामसं भयमज्ञानं, निद्रालस्यविषादिता । इति भूतमयो देह II Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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