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________________ संस्कृति के दो प्रवाह किन्तु दूसरे आगमों में रोग प्रतिकार करने के उल्लेख भी मिलते हैं । हो सकता है प्रारम्भ में रोग प्रतिकार का निषेध हो और बाद में उसका विधान किया गया हो । यह भी हो सकता है कि देह-निर्ममत्व की विशेष साधना करने वाले मुनियों के लिए चिकित्सा का निषेध हो, सबके लिए नहीं । संभव है मृगापुत्र की विशेष साधना की उत्कट इच्छा को ध्यान में रखकर ही माता-पिता ने ऐसा कहा हो । कुछ भी हो, चिकित्सा के विषय में आगमकारों की एकांतदृष्टि नहीं रही । बाईस परीषहों, जो स्वीकृत - मार्ग पर स्थिर रहने और आत्म-शुद्धि के लिए सहन करने योग्य होते हैं, में कुछ परीषह सब मुनियों के लिए नहीं हैं । ११४ कठोर और मृदुचर्या का प्रश्न आपेक्षिक है । एक व्यक्ति को एक स्थिति में जो कठोर लगता है, वही उसको दूसरी स्थिति में मृदु लगने लगता है और जो मृदु लगता है, वह कभी कठोर लगने लगता है । इसी अनुभूति के सन्दर्भ में मृगापुत्र ने कहा था - ' जिसकी लौकिक प्यास बुझ चुकी है, उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । ।” १. उत्तराध्ययन, १६।४४ : इह लोए निष्पिवासस्स नत्थि किचि वि दुक्करं । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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