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________________ ३२ जो सहता है, वही रहता है आ सकती है कि सब लोग दूसरों को देख रहे हैं और दूसरों को देखने के कारण दुःख का अनुभव कर रहे हैं। अब यह बात समझ में आएगी कि सत्य बहुत परिश्रम के बाद पचता है।' कहानी बहुत मार्मिक है और इसका फलित भी बहुत मार्मिक है कि दूसरे को देखनेवाला कभी सुख का अनुभव नहीं करता। हर आदमी दुःख का अनुभव करता है। अपने आप नहीं करता, दूसरे के कारण दुःख का अनुभव करता है। शत-प्रतिशत दुःख का कारण है-दूसरा । बीमारी आती है, वह भी तो दूसरी है, अपनी तो है नहीं। बीमारी के कारण दुःख का अनुभव होता है, शत्रुता के कारण दुःख का अनुभव होता है, अप्रियता के कारण दुःख का अनुभव होता है, 'पर' के कारण दुःख का अनुभव होता है। हमारे व्यक्तित्व के साथ एक 'स्व' जुड़ा हुआ है और दूसरा 'पर' जुड़ा हुआ है। व्यक्तित्व की एक सीमा में हम अपने बारे में चिंतन करते हैं और दूसरी सीमा हमारी है कि हम 'पर' के बारे में चिंतन करते हैं। 'पर' शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं स्वतंत्र और भिन्न। 'पर' इसलिए कि वह स्वतंत्र है और उसका अस्तित्व स्वतंत्र है। एक है भेदानुभूति और दूसरी है स्वतंत्रतानुभूति । __ हमारे चिंतन में कुछ अलग-अलग कोण होते हैं। चिंतन, विचार हमेशा सापेक्ष होते हैं। अपने आप में चिंतन का कोई अर्थ नहीं होता। चिंतन की उत्पत्ति और उसके विकास के लिए कोई आधार चाहिए, कोई दूसरा चाहिए। द्रव्य हो या क्षेत्र, काल हो या अवस्था, व्यक्ति हो या वस्तु, चिंतन के लिए कुछ न कुछ चाहिए। ईधन के बिना आग नहीं जलाई जा सकती। आग को जलाने के लिए ईंधन चाहिए, सामग्री चाहिए। चिंतन को प्रज्वलित होने के लिए भी ईधन चाहिए, सामग्री चाहिए। चिंतन की आग का प्रज्वलन है-'पर' । यदि यह 'पर' शब्द नहीं होता तो फिर चिंतन की अपेक्षा ही नहीं होती। ____ हम अपने बारे में कैसे सोचें? हम दूसरे के बारे में सोचते हैं तो कैसे सोचें? जब हम सामाजिक जीवन जीते हैं, वहाँ केवल 'स्व' नहीं होता, 'पर' भी होता है और 'पर' होता है, इसलिए समाज बनता है। यदि केवल 'स्व' होता तो शुद्ध अध्यात्म होता, व्यवहार नहीं होता। हमारा सारा व्यवहार समाज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003054
Book TitleJo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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